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________________ पादाब्जाङ्गलिसत्कनिर्मलनखादर्शेषु लोकत्रयी, निश्शेषाप्रतिबिम्बितान्तरमुदा यस्या नमन्ती प्रभोः। अप्राप्तापरभागसंसृतिभयाल्लीनेव दीना सती, तं पार्श्व फलवर्द्धिकेश्वरमहं नत्वोपसर्गापहम्॥ २ ॥ प्रौढं प्रौढयुगप्रधानपदसाम्राज्यं प्रतीतं पुरा, देवोक्त्या भुवि नागदेवभविकश्राद्धस्य साक्षात्पुरः। योगिन्योऽपि च येन मन्त्रमहिमाप्रागल्भ्यतो जिग्यिरे, स्तुत्वा श्रीजिनदत्तसूरिमनघं तीव्रप्रतापारुणम्॥३॥ जिनकुशलं कृतकुशलं प्रारब्धविशेषशास्त्रसिद्धिकरम्। प्रणिधाय मनसि मानसमिव शुचिहृदयं महामानम्॥४॥ श्रीचण्डपालोऽत्र कियत्पदानां यद्यप्यनिन्द्यां विवृतिं चकार। तथापि तच्छेषपदार्थसार्थप्रकाशनात्तां विवृणोमि चम्पूम्॥५॥ विवृतिकार ने रचना प्रशस्ति में अपनी गुरु-परम्परा आदि का परिचय देते हुए लिखा हैखरतरगच्छ में नवांगी-वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि हुए और उन्हीं की पट्ट परम्परा में श्री जिनमाणिक्यसूरि और युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि हुए। इसी खरतरगच्छ की परम्परा में क्षेमशाखा में पाठक क्षेमराज के चार शिष्य हुए–पाठक शिवसुन्दर, पाठक कनकतिलक, पाठक दयातिलक, पाठक प्रमोदमाणिक्य। पाठक प्रमोदमाणिक्य के चार शिष्य हुए-गुणरंग, दयारंग, जयसोम, क्षेमसोम। पाठक जयसोम के मुख्य शिष्य गुणविनय हैं। पाणिनीय व्याकरण, हेमचन्द्ररचित अनेकार्थसंग्रह आदि मुख्य ग्रन्थों के आधार से चण्डपाल रचित विषमपद प्रकाशक टिप्पणक का आधार लेकर मैं (गुणविनय) इस चम्पू की विशेष वृत्ति की रचना कर रहा हूँ। विक्रमपुराधीश (बीकानेर नृपति) श्री रायसिंह और मंत्रीवर कर्मचन्द्र के शासनकाल में विक्रम सम्वत् १६४७ में जिनचैत्य से सुशोभित सेरुन्नक (सेरुणा) नामक नगर में मैंने इस विवरण की रचना की है। आधुनिक विद्वान की रचना समझ कर विद्वद्गण इस टीका की उपेक्षा न करें। श्री फलवर्धी पार्श्वनाथ, श्री जिनदत्तसूरि और श्री जिनकुशलसूरि की कृपा से यह टीका पढ़ने वालों के लिए शुभदायी हो। व्याकरणशास्त्र के धुरंधर विद्वान श्री रत्ननिधानोपाध्याय ने इस वृत्ति का संशोधन किया। __ इसके पश्चात् ९ पद्यों में गौरक्षा में दक्ष, सर्व-धर्म-भावना से ओत-प्रोत सम्राट अकबर के विजयराज्य में अकबर के राज्याभिषेक के समय से (विक्रम सम्वत् १६१२) ३५वें वर्ष (विक्रम सम्वत् १६४७) में लाभपुर (लाहौर) में रहते हुए मैंने (गुणविनय ने) इस टीका की रचना पूर्ण की है। इस टीका का ग्रन्थाग्रन्थ अर्थात् श्लोक परिमाण ११,००० है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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