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२७ वह बार-बार इन शब्दों को दुहराती थी
विश्राम्यन्ति न कुत्रचिन्न च पुनर्मुयन्ति मार्गेष्वपि, प्रोत्तुंगे विलगन्ति नान्तरतरुश्रेणीशिखापंजरे। खिद्यन्ते न मनोरथाः कथममी तं देशमुत्कंठया,
धावन्तः पथि न स्खलन्ति विषमेऽप्यास्ते स यस्मिन् प्रियः॥१ उसे न नृत्य सुहाता था न वीणा। चन्दनरस से युक्त कर्पूर जल भी उसे असहय हो गया था। केवल प्रियकथा ही उसे रमणीय लगती थी।७२ उसने वियोग-साधना प्रारंभ कर दी थी७३ । स्वयंवर के लिए उत्तर दिशा के राजाओं को निमंत्रित करने वाले दूतों से उसने नल को अवश्य लाने के लिए कहा
भूपालामंत्रणे तात तथा संचार्यतां यथा।
नलोप्यागमबुद्धिः स्यात्प्रार्थ्यसे किमतः परम्॥७४ अंत में नल के आगमन का समाचार पाकर वह संतुष्ट हो गयी। उसने स्वयंवर के लिए आते समय नल के पास अनेक वार्ताहर भेजे और वह नल के सकुशल आगमन की कामना करती रही। नल को उसने वार्त्तिक से पत्र भेजा
नलोऽपि मां प्रत्यनलोऽसि यत्तद्भवादृशां नैषध नैष धर्मः। तथाबलानां बलवद् ग्रहीतुं न मानसं मानसमुद्रयुक्तम्॥ निपतति किल दुर्बलेषु दैवं तदवितथं ननु येन कारणेन। बलवति न यथा तथाबलानां प्रभवति कृष्टशरासनो मनोभूः॥
कदा किल भविष्यन्ति कुण्डिनोद्यानभूमयः।
उत्फुल्लस्थलपद्माभभवच्चरणभूषिताः॥५ दमयन्ती की दशा का वर्णन पुष्कराक्ष ने इस प्रकार किया है
त्वद्देशागत वायसाय ददती दध्योदनं पिण्डितं, त्वन्नाम्नः सदृशे दृशं निदधती वन्येऽपि मुग्धानले। त्वत्संदेशकथार्थिनी मृगयते तान् राजहंसान्पुनः, क्रीडोद्यानतरंगिणीतरुतलच्छायासु वापीषु च।७६
तथा
त्वद्देशागतमारुतेन मृदुना संजातरोमांचया, त्वद्रूपांचितचारुचित्रफलके निर्वापयन्त्या दृशम्। त्वन्नामामृतसिक्तकर्णपुटया त्वन्मार्गवातायने, नीचैः पंचमगीतिगर्भितगिरा नक्तंदिनं स्थीयते॥७७
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