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________________ १३० ५. पार्श्वनाथ गुणवेली स्तवः र०सं० १६८९ ६. गज सुकुमाल रास र०सं० १६९९, अहमदाबाद ७. प्रश्नोत्तर रत्नमालिका बालावबोध आदि विशेष परिचय के लिये देखें, 'जिनराजसूरि-कृति-कुसुमाञ्जली' ८८. जै.गू.क.भा. २, पृ० ८४३; १०१, १०२, १०३, १०५ पुण्यविजयजी संग्रह गुटके में ८९. १०४, अभय जै० ग्र० बीकानेर, क्र० २६५४, स्वयं लि० । ९०. १०६-१०८ अजमेर खरतरगच्छ ज्ञान भंडार, जगत्कीर्ति लि०१ पत्र । ९१. श्री पूज्यजी संग्रह, रा०प्रा०प्र० बीकानेर ३१०० ९२. २, ७ श्री पुण्यविजयजी संग्रह गुटका। . ९३. ३, ४, ५, ६ अभय जै० ग्र० बीकानेर ४१२१, ४११९ ९४. ८ प्रेसकोपी अभय जै० ग्र० बीकानेर । ९५. सुमतिसिन्धुर रचित निम्नकृतियाँ प्राप्त हैं-१. पार्श्वस्तव (र०सं० १६९६), २. गिरनार नेमिनाथ स्तव (र०सं० १६९८), ३. अष्टोत्तरशतपार्श्वस्तव (र०सं० १७०३), ४. लौद्रव पार्श्वनाथ स्तव (र०सं० १७१५)। ९६. भाग्यविशाल प्रणीत गुणावली चौपाई प्राप्त है। ९७. कनककुमार की २ रचनायें प्राप्त हैं-१. जेसलमेर ८ जिनालय स्तोत्र (र०सं० १७१६) और २. नेमिनाथ स्तव (र०सं० १७२५) ९८. कनकविलास की ४ कृतियाँ प्राप्त हैं-१. देवराज वच्छराज चौपाई (र०सं० १७३८ जेसलमेर), २. प्रदेशी सन्धि (र०सं० १७४१ बाडमेर), ३. आयुदेहमान अंतरकाल स्तवन (र०सं० १७४३), ४. उत्तमकुमार चतुष्पदी (र०सं० १७३४ अकबराबाद), स्वलिखित प्रति राप्राविप्र० जोधपुर २५९५६ पर है। रत्नविमल की ५ कृतियाँ प्राप्त हैं-१. पुरंदर चौपई (र०सं० १८२७ कालाऊना), २. मंगलकलस चौपाई (र०सं० १८३२ बेनातट), ३. इलापुत्र रास (र०सं० १८३९ राजनगर), ४. तेजसार चौपाई (र०सं० १८३९ बावड़ीपुर), ५. अमरतेज धर्मबुद्धि रास। १००. राजकीर्ति कृत कल्पसूत्र बालावबोध प्राप्त है। १०१. मुनि-शेवधि-रस-शशहर (१६६७) मितवर्षे विक्रमार्कभूभर्तुः। श्रीमत्खरतरगच्छे श्रीमजिनराजसूरिवरे ॥ १॥ इस टीका के सम्बन्ध में विस्तृत परिचय के लिये देखें, देवानन्द सुवर्णक में श्री अगरचन्द जी नाहटा का लेख–'मतिकीर्ति रचित दशाश्रुतस्कन्धवृत्ति' १०२. रसमुनिरसशशिवर्षे (१६७६) हर्षेण विचारसारसम्पन्नम्। प्रश्रोत्तराभिधानं शास्रं कुमतान्धतमसरविम्॥८॥ विद्वल्लावण्यकीर्त्तिनामाग्रहाद् ग्रथितं मया। पठ्यमानं सुखश्रीदं भवताद् भव्यजन्तुषु ॥ ९ ॥ १०३. इति साधुलखमसीकृत प्रश्नानामेकविंशत्युत्तराणि भट्टारक-श्रीजिनराजसूरि-सूरि-राजादेशमासाद्य श्रीजयसोममहोपाध्यायशिष्य-श्रीगुणविनयमहोपाध्याय-तच्छिष्य-शिष्याणु-मतिकीर्तिगणिभिः स्वपरोपकारहेतवे श्रीजिनागमात्समुद्धृत्य लिखितानि। १०४. श्री जेसलमेरौ मेरोरिव वसुविलाससारपुरे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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