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তত্ত্বার্থসূত্রম্
হেতু ‘মন এব মনুষাণাং কারণং বন্ধমোক্ষয়ে।” সংসারে মানবের মনই বন্ধন বা (অধঃপতনাদি) এবং মুক্তি ( চিরশান্তির) হেতু। সংসারে অত্যাসক্তিতে বন্ধন, সকল আসক্তি ত্যাগে মুক্তি মনের ना हिटदरे या शासक ।। १ ।।
बहारम्भ परिग्रहाद्या नारकाद्यायुष्कहेतवः॥८॥ टीका। बहारम्भ परिग्रहादयोदोषा नारकादीनां आयुषोहेतुः स्यात् । भुबने अस्मिन् अविवेकिनो लोका अविचार्य बहुषुदोषजनकेषु कम्मेसु समासक्ता भवन्ति। तेन काले परिणामे तानि कम्मेजनितफलानि नरक-तिय्यंग्योनि प्रभृत्यायुषे भवन्ति । अतो धर्मानुशासन गुरूपदेशश्चानुसृत्यकारम्भणं युक्तमिति। अत्र सत्रे आद्यपदप्रयोगाचतुणां नारकादीनां गमनानां संग्रहो आस्रवहेतुर्बोध्यः। अत्रार्थ सभाष्य सूत्रं यथा “बहारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः।" "बहारम्भख बहूपरिग्रहख च नारकस्य आयुष आस्रवो भवति" इति तत्र भाष्यकृद्भिरवादि। परंमनयोः सूत्रयोराशयगतभेदोनास्ति ॥८॥
সব্যাখ্যানুবাদ। অবিচারিত ভাবে বহুকার্য আরম্ভ করা এবং তাদৃশ কার্যে ব্যাপৃত থাকিলে পরিণামে সকল কার্যের ফল নারকাদির জনক আয়ুর হেতু অস্রব হইয়া থাকে। সূত্রে আদি পদের প্রদানহেতু নরক, পশু প্রভৃতি ভবের লাভ সম্ভাবনা বুঝিতে হইবে। উমা স্বাতি আচার্যের সভাষ্য সূত্রের পাঠ এইরূপ “বহৃারম্ভপরিগ্রহত্বং চ নারকস্যায়ুষঃ।” এই দুই সূত্রের অভি প্রায় গত কোনরূপ পার্থক্য দেখা যায় না। এই সূত্রের ব্যাখ্যাকালে ভাষ্যকার বিশেষ কোন তত্ত্ব প্রকাশ করেন নাই, কেবল সূত্ৰাৰ্থ বলিয়াছেন। ৮।
__ योगवक्रताद्या अशुभनाम्नः॥९॥ टीका। योगेति। अत्र योगपदेन प्रागुक्त मनोवाक्य-कायगत-योग एव ग्राह्यः। तेषां योगानां वक्रता अनाजव विसंवादनश्च अन्यथा प्रवर्तनं वितण्डाचाशुभस्यनाम्न आस्रवोहेतुर्भवति। अत्रादिपदस्यार्थ:-आदौभवा आद्याः मनोवाक्देहाणां वक्रता पैशून्यादयः। अत्रादि पदोपादानात् सर्वार्थ सिद्धिकृतां व्याख्यातॄणा मते मिथादर्शन पैशुन्य चित्तास्थ व्यकूटमानतुलाकरणादयोग्राह्याः। सभाष्यसूत्र पाठ इत्थम्। “योगवक्रताविस वादनं चाशुभस्य नाम्नः"
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