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________________ क्रमांक राजा का नाम देश-नगरी विशेषता क्रमांक राजा का नाम देश-नगरी विशेषता महाबल कनकधज करका तैतलीपुर कांचनपुर मगध कूणिक प्रत्येक बुद्ध श्रमणोपासक (जैन श्रावक दीक्षा ली श्रमणोपासक मित्रनन्दि वासवदत्त विजय पुरिमताल वाणिज्यगाम साकेतपुर विजयपुर पोलासपुर मृग (गा) ग्राम वर्द्धमानपुर गागली पापोत वीरपुर जितनु" दत्त दक्षिवाहन दशार्णभव पृष्ठचम्पा उज्जयिनी वैशाली नव नगर चम्पानगरी चम्पा दशाणपुर काम्पिल्य ऋषभपुर मिथिला विजयमित्र वीरकृष्ण मित्र वीरयश वैश्रमणवत्त शतानिक दीक्षा दीक्षा (?) दीक्षा दीक्षा प्रत्येक बुद्ध प्रत्येक बुद्ध प्रत्येक बुद्ध शिव-राजर्षि शीरिकदत्त श्रीदाम क्षत्रियकुण्ड धनावह नमि-राजर्षि नग्गति नदिवर्द्धन पुण्यपाल प्रवेशी प्रसन्नचन्द्र प्रियचन्द्र बल महाचन्द्र रोहितक कौशाम्बी मथुरा हस्तिनापुर शौरिकपुर मथुरा मगध पृष्ठचम्पा पृष्ठचम्पा पाटलिखण्ड आमलकल्पा कम्पिलपुर अपापापुरी सेतव्या (सेतम्बिका) श्रमणोपासक दीक्षा साल महासाल सिद्धार्थ पोतनपुर सेय कनकपुर महापुर सारंजणी संजय हस्तिपाल * तदुपरांत वैशाली राज्य के सलाहकार रूप से नियुक्त हुये काशी-कोशल प्रदेश के नव मल्लकी और नव लिच्छवी मिलकर १८ गण राजा तथा उसके अतिरिक्त वीरंगय ऐणेयक इत्यादि। * २, ३, ११, १४, १९, २६, २७, ३२, ३६ इन संख्यांकित राजकुमारों को भगवान ने दीक्षा दी थी। * प्रत्येक नगरी के ठीक-ठीक स्थल उपलब्ध होने से उसे नहीं दिया गया। परिशिष्ट सं. ९ पाँच कल्याणकों के नाम, दिवस, स्थल, देश इत्यादि भूमिका जैन शास्त्रों में तीर्थकरों की पाँच घटनाओं को प्रधान घटनाएँ बताया गया है, और उन घटनाओं को 'कल्याणक' शब्द से दर्शाया गया है। इसका कारण यह है कि तीर्थंकरों का इस धरती पर आना, जन्म ग्रहण करना, दीक्षा लेना इत्यादि पाँचों ही प्रसंग तीनों ही लोक के जीव-प्राणियों के कल्याण के हेतु ही होते है। तीर्थकरों के लिये ऐसा है कि (अपने से विपरीत) उनका परकल्याण में स्वकल्याण समाविष्ट होता है। लोकोत्तर अवस्था को प्राप्त व्यक्तियों की यही एक विशेषता है। ४०, असली नाम कूणिक है। बौद्ध परम्परा में इसे 'अजातशत्रु कोणिक' इन शब्दों में उसका पार्श्वनाय शासन के अनुयायी थे। उल्लेख किया गया है, और जैन 'आवश्यक चूर्णि' में 'अशोकचन्द्र' ऐसा नामान्तर दिया गया है। मगधेश्वर श्रेणिक पुत्र 'कोणिक' यही है। ४४. मूलनाम 'जय' है। ४१. श्रावक के लिये शास्त्र में "श्रमणोपासक" शब्द आता है। ४५, श्रेणिक के दूसरे नामों के रूप में भभसार, भिंभसार. भिभिसार के उल्लेख मिलते है। ४२. मूलनाम 'प्रथोत' था। उत्तरवर्ती संस्कृत प्राकृत ग्रन्थकारों ने 'मंभसार' शब्द को माना है, जब कि बौद्ध ग्रन्थों में ४३. जितशत्रु नामके अनेक राजा हुये है। किसी समय यह नाम विशेष्य रूप से, तो कभी उसका 'बिम्बिसार' नाम मिलता है। श्रेणिक, कोणिक, उद्रायण, उदयन इन राजाओं को, गुणवाचक विशेषण रूप से प्रस्तुत हुआ है। जो भी हो, इस नाम के कुल नौ राजा महावीर जैन और-बौद्ध ग्रन्थ अपना-अपना अनुयायी मानते है। बौद्ध ग्रन्थों मे बद्धचरित. के भक्तजन थे। संयुक्त और मज्जिमनिकाय में कोशलराज प्रसेनजित् का उल्लेख आता है। विनयपिटक, दीघ-मजिाम-निकाय आदि गिना सकते है। जैन आगम ग्रन्थों में स्थानांग, वह इस जितशत्रु के नाम से ही प्रसिद्ध राजा होना चाहिए. ऐसा इतिहासकारों का मत है। दशा श्रुतस्कन्ध, उववाई, अनुतरोपपातिक, ज्ञाताधर्म कथा आदि कहे जा सकते है। जैन अनुश्रुति में (त्रि. श.) प्रसेनजित् नाम जो आता है, वे तो श्रेणिक के पिता थे और वे | ४६. देखो-ठाणांग सू. ६२१। ८३ Jain Education international For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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