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________________ परिशिष्ट सं. ७ * गोशालकने जो तेजोलेश्या फेकी, यह भी उपसर्ग ही था, परन्तु वह केवली अवस्था में हुआ भगवान महावीर को किस वर्ष में, कहाँ, कैसे उपसर्ग हुए थे? उसकी सूची। था, अतः उसकी गणना न करते हुए उसे 'आश्चयाँ' की गणना में रखा गया है। * ग्वालों के द्वारा प्रारम्भ हुए उपसर्गों की ग्वालोद्वारा ही पूर्णाहुति हुई। ये उपसर्ग मानव से। भूमिका-जिसे मानवजाति को सत्य का दर्शन कराना हो, उसे अन्तिम कोटि का महाज्ञान प्राप्त | प्रारम्भ हुये और मानव से पूर्ण हुये। योगानुयोग दोनों के स्थल, समय, निमित्त समान थे। बड़े करना ही चाहिए, क्योंकि उसके बिना सत्य का यथार्थ दर्शन शक्य नहीं है। कर्मों के आवरण उपसर्ग सूर्यास्त के बाद ही हुये है, और ऐसा होना स्वाभाविक भी था। से प्रच्छत्रज्ञान का महाप्रकाश आत्मिक परिशुद्धि के बिना संभव नहीं है। यह निर्मलता संयम और * भगवान के शरीर की सन्धियों की हड्डियों की बनावट असाधारण दृढ़ होती है। शास्त्र में तप की महान् साधना के बिना प्राप्त नहीं होती। यह एक निर्विवाद तथ्य है। इसीलिये तीर्थकर जीवों के शरीर की सन्धियों की अस्थिरचना के भिन्न २ युग के आश्रय से छह प्रकार होने के लिये जन्मे हुए परमपुरुष योग्य समय पर प्रथम गृहस्थाश्रम को अर्थात् घर, कुटुम्ब बताये गये है। उसके अन्तर्गत यह प्रथम प्रकार है, जिसे शास्त्र "बा ऋषभनाराच संघयण" परिवार और अन्य सभी बाल्य परिग्रहों को छोड़कर पापाश्रवों को सर्वथा रोकने के लिये के नाम से परिचय देते है। आजीवन संयम-दीक्षा व्रत ग्रहण करते है। वे प्रायः निर्वस्त्री, मौनी होकर नग्न शरीर पर शीत धूप | * वर्तमान युग के जीव अति अन्तिम प्रकार की निर्बल अस्थि रचना को धारण करते है। की परवाह किये बिना प्रत्येक गाँव, प्रत्येक नगर, प्रत्येक वन, प्रत्येक जंगल में विचरण करते है। * १२॥ वर्षों तक दिनरात अविरत ध्यानपूर्वक साधना बहुधा खड़े-खड़े की थी। आसन शारीरिक आवश्यक धर्मों की भी उपेक्षा करके "देहदुःख महाफलम्" के सूत्रको सम्पूर्णरूप से लगाकर तो स्वयं बैठे ही नहीं थे। प्रमादरुप निद्राकाल की समय गणना एकत्रित करने पर आत्मसात् कर लेते है। संयम और तप के बिना कभी किसी का उद्धार हुआ नहीं है, और होता १२॥ वर्ष के अन्तराल मात्र दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनट की ही थी। कैसी प्रचण्ड साधना ! भी नही है। वे शाश्वत सत्य का आलम्बन लेकर उसकी साधना में मान हो जाते है। निदा और सचमुच! यह भणभर के लिये स्तब्ध कर दे ऐसी घटना है। आराम को तिलान्जलि देते है। बिहार में वे अधिकांश चैत्य, उद्यान, वन इत्यादि एकान्त स्थलों में, एकाकी कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होकर विविध प्रकार के ध्यान में निमग्न हो जाते है। समभाव परिशिष्ट सं. ८ में स्थिर होकर, अनेक जन्मों से उपार्जित कर्मो को निर्जरा-क्षय करते जाते है। कर्मो को भगवान श्री महावीर के भक्त राजागण सम्पूर्णरूप से नष्ट अर्थात् आत्म प्रदेशों से सर्वथा पृथक करने के लिये अपनी साधना को भूमिका-भगवान महावीर के, कौन-कौन से राजा अनुयायी, उपासक अथवा भक्तजन थे और भगवान उत्तरोत्तर तीव्र करते जाते है। हिंसा, असत्य, चोरी, अबहूम और परिग्रह आदि पापकर्मों से विमुक्त भगवान इन्द्रियों की विषय-वासनाओं और क्रोधादि कषायों का रंग लेश मात्र भी कौन दीक्षित हुये थे, उसकी प्राप्य सूची यहाँ दी गयी है। उसके अतिरिक्त दीक्षित हुये संख्याबद्ध कही न लग जाय, उसके लिये अपने मन, वचन और काया को अप्रमत्त भाव से प्रवर्तित करते राजकुमार, राजकुमारियाँ तथा राजरानियों की सूची यहाँ नहीं दी गयी है। है। कैसे भी कष्ट, दुःख, अपमान, अनादर, असुविधा और अनेक परिषहों को अदीन भाव से क्रमांक राणा का नाम देश-नगरी सहन करते है। उनकी साधनायात्रा के अन्तर्गत, असुरों, सुरों, मनुष्यों अथवा पशुपक्षियों द्वारा होनेवाले उपसर्गो-उपद्रवों के विरोध की भावना के बिना-प्रतिकार की लेशमात्र भी भावना रखे अदीन शत्रु हस्तिशीर्ष बिना हँसते मुख से स्वागत करते है। और इस प्रकार करते हुए आत्मगुणों के घातक-घाती अप्रतिहत सौगन्धिका कर्मावरणों का सर्वथा क्षय करके, वीतराग की अवस्था को प्राप्त होकर, केवलज्ञान के महाप्रकाश अर्जुन सुघोष को प्राप्त करते है। उसके प्राप्त कर लेने पर स्वयं को कृतकृत्य मानते है। और उसके पश्चात् अलक्ख वाराणसी-काशी दीक्षा ली अपने ज्ञान प्रकाश द्वारा विश्व को सुख-शान्ति और कल्याण का राजमार्ग दिखाते है। उदयन कौशाम्बी सिन्धु-सौवीर दीक्षा ली भगवान महावीर ने भी उसी मार्ग से ज्ञानप्रकाश प्राप्त किया था। उस प्रकाश प्राप्ति की (उदयन) साधना के भीतर असुरों, सुरों और मनुष्यों के द्वारा जो उपसर्ग हुए, वे कौन कौन से और किस किसने किये उसकी प्राप्त जानकारी यहाँ दी गयी है। ३५, 'चउपन, चरियं' में अस्थिक नागराज सर्प द्वारा उपद्रव किये जाने की बात कही गयी है। १ | वर्ष ८ ३६. कल्पसूत्र "सुबोपिका टीका" में उत्कृष्टातिउत्कृष्ट उपसर्ग रूप में 'कर्णकीलककर्षण' स्थल कुमार गाम. अस्थिक गाँव. | स्थल लोहार्गल लिखकर कील बाहर निकाले यह बताया गया है। वस्तुतः कील निकालने की क्रिया प्रकार ) ग्वालों का शूलपाणि का । महावीर की गिरफ्तारी उपसर्ग रूप की नही है परन्तु भक्ति से रक्षास्वरूप की थी. फिर भी हालते समय जो कष्ट वर्ष नहीं हुआ, वह निकालते समय हुआ है, इस दृष्टि से उपसर्ग और उत्कृष्टता स्वीकार की स्थल । उत्तर वाचाला सुरभिपुर. अनार्य मानी जाती गयी है। के पास प्रणीत भूमि मे लाढ | ३७, "चउपन्न, चरियं में कीले निकाली गई तब भगवान काउसग्ग ध्यान में अवस्थित थे ऐसा प्रकार चण्डकौशिक सुदंष्ट्र देव का राढ़ से प्रसिद्ध प्रदेश बताया गया है। और वैद्य ने समीप के वृक्ष की दोनों तरफ की शाखाओं को मूकाकर, सर्प का. की वजशुद्ध (?) भूमि फिर उसे रस्सी से बाँधकर, उस रस्सी को कान की काष्ठ (तीक्ष्ण घासकी) शूलों-सरियों के मानवकृत कूर उपसर्ग साथ बाँधकर, फिर शाखाओं को छोड़ देने पर वे शूल खीचकर कान से बाहर निकाली वर्ष ११ गयी, ऐसा बताया गया है। चोराक स्थल दृढ़ के पेढालगाम के जो लोग शूल-शालाका शब्द का अर्थ लोहे की कील करते है और तदनुसार लोहेकी बड़ी प्रकार ) कुएँ में डुबकाना पोलास चैत्य कील ग्वाल भगवान के कानों में ठोक रहा है ऐसे चित्र पहले छपे है यह ठीक नहीं है। प्रकार संगम के २० उपसर्ग, कील का तो प्रयोग किया ही नहीं था। बल्कि काश नामक घास की जड़ की मजबूत और तोसली गाम में फाँसी- तीक्ष्ण खूटी थी। पर लटकना आदि ३८. इस राजा को जैन, बौद्ध और वैदिक ये तीनों ही परम्परायें अपना-अपना अनुयायी मानती १३ है। इसका उल्लेख जैन-आगमों के अन्तर्गत भगवती और विपाक सूत्र में है। कथा साहित्य कलंबुका पम्माणि. में भी है। जब कि बौद्ध ग्रन्थों में धम्मपद-अट्ठकया और संयुक्त निकायमे है। वासवदत्ता प्रकार ) पीटकर के रस्सी | लाढ़-राड की अनार्य ग्वाले के द्वारा कान में | की कथा का उदयन यही है। से बाँध दिया | भूमि के उपदव काष्ठ की कील ठोकने ३६ | |३९. पश्चिम भारत में आये हुये और 'वीतभयपत्तन' की राजधानी से सुशोभित सिंघु-सौवीर तथा काष्ठ की कील देश का यह राजा था। इसका ठीक नाम उद्रायण है। यह नाम आव. निर्य, उत्तरा, नेमि. J निकालने का टीका और उपदेश माला में है। बौद्ध ग्रन्थों में इसका नाम रुद्रायण मिलता है। ऐसा होने स्वल कूपिक सनिवेश शालिशीर्ष मारना प्रकार पर भी आज जैनों में इस राजा की सुप्रसिद्धि 'उदयन' (राजर्षि) नाम से है। सिर्फ इस राजा और कटपूतना को दीक्षा देने के लिये स्वयं भगवान महावीर पूर्व भारत से शीघ्र विहार करके सैकड़ों कोश गिरफ्तारी व्यन्तरी का दूर पश्चिम भारत में आये थे। उदायण" वर्ष स्थल वर्ष ) J८२Education international For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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