________________
उसकी शुद्धि से शरीर स्वस्थ, शान्त और स्थिर होता है और मन भी कुछ अंश तक निर्मल होता | चौमासा ८ विविध अभिग्रहों राजगृह
के साथ
है यह बाह्यशुद्धि भावशुद्धि के लिये कारणभूत है। दूसरे शब्दों में बाह्यशुद्धि साधन है, और भावशुद्धि उसका साध्य है। साधन की जितनी शुद्धि होगी उतनी ही साध्य की शुद्धि श्रेष्ठ होती है।
उक्त दोनों प्रकार की शुद्धि के लिये जैन-शास्त्रों में बाह्य और आभ्यन्तर दो प्रकार का तप बताया गया है। सामान्यरूप में बाह्यशुद्धि के लिये बाह्यतप का और आभ्यन्तर की शुद्धि के लिये आभ्यन्तर तप का प्राधान्य है। बाह्यतप के अन्तर्गत ( १ ) अनशन (२) उनोदरि (३) वृत्तिसंक्षेप (४) रसत्याग (५) कायक्लेश (६) संलीनता। जब कि आभ्यन्तर तप में (१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) उत्सर्ग यह छह प्रकार हैं। आन्तरिक जीवन की शुद्धि द्वारा मोक्षमार्ग में बाधक इन्द्रियों के विकार वासनाओं का शमन होता चौमासा के ६ महीने के हैं, मन की चंचलता तथा तृष्णा का ह्रास तथा घातक [ आत्मगुण के नाशक] कर्मों का क्षय होता है, इसलिये ज्ञान और विवेकयुक्त ऐसा बाह्यतप की उपेक्षा कभी भी न करनी चाहिए, यह तप आभ्यन्तर तप का अनिवार्य साधन हैं। और अनिकाचित अथवा निकाचित कोटि के चौमासा पुरातन से लेकर विद्यमान अघातक कोटि के कर्मों की निर्जरा-क्षय करके, आत्मिक शुद्धि-विशुद्धि प्राप्तकर मोक्षप्राप्ति हो, इसलिये आभ्यन्तर तप करना उससे भी अधिक आवश्यक है। भगवान
बाद
का दोनों प्रकार का तप किस प्रकार समानान्तर रूप से चल रहा था, उसकी झाँकी नीचे दी गई चौमासा के ५ महीने २५ तालिका से होगी।
यहाँ दी हुई तपतालिका में तीन, अडी, देव मासी, आदि की सूची दी नहीं है।
समय
दीक्षा समय
पर
चौमासा १
चौमासा
बाव
बीमासा २
तपप्रकार
चौमासा ४
चौमासा ५ चौमासा ६ चौमासा ७
छट्ट
२९
(दो उपवास)
बेला
पासक्षमण
(पन्द्रह
उपवास)
पासक्षमण
मासक्षमण- १
मासक्षमण २
मासक्षमण- ३ मासक्षमण-४
-
छट्ठ
२ मास क्षमण चारमासी ३३
31
चौमासा बाद
चौमासा ३२ मासक्षमण ३२ चम्पा
"
"
"
स्थल
क्षत्रियकुण्ड
मोराक मे १ अस्थिक
में ७
Jain Education International
कनकखल
आश्रम
नालन्दा
"
ब्राह्मण
पृष्ठचम्पा भद्रिका
"
आलम्भिका
पारणास्थल
कोल्लाक
उत्तरवाचाला
नालन्दा
31
"
कोल्लाक
चम्पा
गाँव के बाहर
गाँव बाहर
11
31
किसने
करवाया ? बहुल ३०
ब्राह्मण ने
(गृहस्थ पात्र) (घृत, शक्कर, में किया) दूध मिश्रित चावल)
नागसेन ने
विजय श्रेष्ठी
आनन्द ने
सुनन्दा ने
बहुल ने
नन्दने
किससे?
111
परमात्रक्षीर से ३१
क्षीर से
कूरादि से पके हुए अन्न से
क्षीर से
क्षीर से
दहीं मिश्रित
भात से
२९. दीक्षा, केवल और मोक्ष ये तीनों ही कल्याणक के समय पर छठ (दो उपवास) होते है। इसमें एक उपवास अगले दिन होता है और दूसरे उपवास पर कल्याणक होता है। ३०. साधु पात्र रखें तो भी उसे धर्म हो सकता है, यह बताने के लिये प्रथम पारणा गृहस्थ दत्त पात्र में और गृहस्थ के यहाँ किया। क्योंकि भगवान तो अपात्री ही थे, इसलिये उनके पास पात्र या भाजन था ही नहीं। क्षीरसे-शक्कर दूध मिश्रित भात।
३१. तीर्थंकर का जहाँ पारणा हो, वहाँ देव आकाश में से सुगन्धित जल, वस्त्र और लाखों करोड़ों सोना मुहरों की वृष्टि इत्यादि पंचदिव्य द्वारा दान की महिमा प्रकट करते हैं। ३२. 'मासक्षमण' यह संस्कृत शब्द है और 'मासखमण' यह प्राकृत शब्द है। ३३. एक साथ होनेवाले पन्द्रह दिन के उपवास को पास पक्ष क्षमण, महीने तक के उपवास को मासक्षमण, दो महीने के किये जायें तो द्विमासी और एक ही साथ चार महीने के उपवास किये जायें तो उसे चारमासी इस प्रकार परिभाषा समझनी चाहिए।
चौमासा ९ चार मासी चौमासा १० विविध तपयुक्त
बाव
चौमासा के भद्र, महाभद सानुलब्धिक और भद्र प्रतिमा (दो, चार और दस उपवास से)
उपवास
(संगम के कारण ) ११ चारमासी वैशाली
बाद दिन ( अभिग्रह के कारण)
वज्रभूमि श्रावस्ती
★ १२ वर्ष और ६ ॥ ग्रहण किया था।
२४ पेढाल
वैशाली
चौमासा १२ चारमासी चम्पा चौमासा १३ छट्ट (दो उपवास ) पावापुरी (निर्वाण के समय)
कौशाम्बी
सानुलब्धिक
वैशाली
For Personal & Private Use Only
कौशाम्बी
गाम बाहर
बहुला दासी ने
वत्सपालिका ग्वालिन ने
दासी के हाथसे (अभिनव
सेठ के घर)
चन्दनबाला
के हाथ से (धनावह सेठ के यहाँ)
१३
बिरंज से
(मिश्रीयुक्त भात)
क्षीर से
★ तप साधना के १२|| वर्ष और १५ दिन के अन्तर्गत भगवान आसन लगाकर बैठे अथवा सोये नहीं थे। हो सका वहाँ तक खड़े रहकर साधना की थी। कभी बैठे भी तो (प्रायः ) उकडू बैठे हैं।
उबले हुये
उड़द के बाकले से
महीने के ४५१५ दिनों में (बीच बीच) मात्र ३४९ दिन ही आहार अन्य ४१६६ दिन अन्न-जल रहित उपवासवाले थे।
★ प्रमादकाल बिलकुल ही अल्प। इस साधना काल में ( प्रायः) मौन व्रत का स्वीकार ।
★ उसी भव में मोक्ष प्राप्ति निश्चित होने पर उपवास कायक्लेश ध्यानादि बाह्यतप अत्यन्त उच्चकोटि का किया। यह आचरण बाह्यतप की भी मोक्ष के पुरुषार्थ हेतु असाधारण आवश्यकता है, इसका प्रजा को स्पष्ट निर्देश दिया।
★ परिषहों और उपसगों के सहने से भगवान महावीर की दीर्घकालीन तपश्चर्या के कारण जैन- अजैन ग्रन्थकारों ने उन्हें 'दीर्घ तपस्वी' इस विशेषण से सम्मानित किया है।
★ तप के आचरण में जैन संघ के साथ कोई समाज सम्प्रदाय मुकाबला नहीं कर सकता। जैन संघ में बालक से लेकर वृद्धों तक से उत्साह पूर्वक होनेवाली उपवासादि की तपश्चर्या यह जैन संघ का चमकता हुआ एक अप्रतिम प्रभावशाली तेजस्वी अंग है, और इसीलिये जैन शासन गौरवान्वित है।
★ तप करने की विधि और उसका महत्त्व वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर महत्त्वपूर्ण ढंग से बताया गया है। अन्तर इतना ही है कि जैनियों ने गंभीरता और विवेकपूर्वक उस तप को क्लिष्ट स्वरूप में और व्यापक प्रमाण में आचरण में लाकर उस परम्परा को अविच्छिन्न रूप से बनाये रखा है।
३४. चौमासा के पश्चात् (गुज.) कार्तिक से आषाढ तक का समझना चाहिए।
८१ www.jainelibrary.org