SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रमांक श्रमण जीवन | वि. पूर्व का कौन-सा वर्ष? | कौन - सा वर्ष? भरिका (पुरी) भद्रिका आलमिका राजगृह प्रणीतभूमि (अनार्य) श्रावस्ती वैशाली चम्पा ५०८-५०७ ५०७-५०६ ५०६-५०५ ५०५-५०४ ५०४-५०३ -५०२ ५०२-५०१ ५०१-५०० परिशिष्ट सं. ५ छयत्यावस्था भगवान श्रीमहावीर ने कहाँ कितने चातुर्मास किये? तथा केवलज्ञान की जानकारी | भूमिका निर्वाण-मोक्षमार्ग के पथिक निर्ग्रन्थमुनि साधु को रागादि दोषों से और आचरण की शिथिलता से बचने के लिये, और अपने साथ परकल्याण हेतु भी एक ही स्थल पर अधिक छद्मस्थ निवास करना उचित नहीं होता, इसलिये शास्त्राज्ञा के अनुसार वर्ष के आठ महीने जैन-साथ-साध्वियों को पादविहार द्वारा विविध स्थानों में विचरण करना पड़ता है। परन्तु हिंसादि दोषों से दूर रहने व अपने जीवन की शुद्धि के लिये आध्यात्मिक साधना में तीव्रता हेतु उसे वर्षावास अर्थात् चौमासा के चार मास तो एक ही स्थान पर अनिवार्य रहने की आज्ञा है। अधिकाश इसी मार्ग का अनुसरण करने वाले भगवान महावीर विविध स्थानों में निर्वस्त्र रहकर, सर्वथा अपरिग्रही होकर, मौन रखकर आठ मास विचरण करते थे और चौमासा में एक ही स्थल पर रहा करते थे। उसके अन्तर्गत वे तप, संयम और ध्यान की श्रेष्ठ साधना करते समय उपस्थित होनेवाले विविध परिसहो और उपसर्गों को अपरिमित और अखण्ड समता के साथ सहकर आत्मा के पूर्णप्रकाश तथा लोककल्याण के लिये सर्वथा आवश्यक जैसे केवलज्ञान के (केवलज्ञान) प्रकाश के अवरोधक कर्मों-दोषों की निर्जरा (क्षय) करते रहे थे। और उसके क्षय होते ही उन्होंने वर्षों से (जन्मजन्मान्तरों से) अभिलषित केवलज्ञान (त्रिकाल ज्ञान) प्राप्त किया। __- जैन साधुओं में चौमासा की गणना करने की खास प्रथा है। यहाँ दीक्षा के प्रथम चौमासा से लेकर निर्वाण पर्यन्त चौमासा की सूची ‘कल्पसूत्र' ग्रन्थ के आधार पर प्रस्तुत की है। ३ ५००-४९९ ४९९-४९८ ४९८-४९७ ४९७-४९६ ४९६-४९५ ४९५-४९४ राजगृह वैशाली वाणिज्यगाम राजगृह वाणिज्यगाम राजगृह राजगृह वैशाली वाणिज्यगाम राजगृह वाणिज्यगाम राजगृह मिथिला मिथिला मिथिला वाणिज्यगाम वैशाली वाणिज्यगाम ४९४-४९३ ४९३-४९२ ४९२-४९१ ४९१-४९० ४० ० ० mur90 0.0m3w9 Nor mo1900 चातुर्मास संख्या १ चौमासा २ चौमासे १ चौमासा २ चौमासे २६ १ चौमासा १ चौमासा ४९०-४८९ स्थल नाम | देश नाम | चातुर्मास क्रमांक अस्थिक गाम में | विदेह जनपद चम्पा में अंगदेश पृष्ठचम्पा में भदिका-मद्दिया में आलं (ल) भिका में काशीराष्ट्र प्रणीतभूमि में (वजभूमि नाम के अनार्य देश की)| श्रावस्ती में कुणालदेश १० वैशाली में विदेहदेश |११,१४,२०,३१,३२,३५ वाणिज्यगाम में |१५,१७,२१,२३,२८,३० राजगृह नगर में मगधदेश । ८,१३,१६,१८,१९, |२२,२४,२९,३३,३७,४१ नालन्दा (उपनगर) में २७ मगधदेश | २, ३४, ३८, मिथिला नगरी में विदेहदेश २५,२६,२७,३६,३९,४० पावामध्यमा-पावापुरी में मगधदेश १ चौमासा ६ चौमासे ६ चौमासे ११ चौमासे शाली ४८९-४८८ ४८८-४८७ ४८७-४८६ ४८६-४८५ ४८५-४८४ ४८४-४८३ ४८३-४८२ ४८२-४८१ ४८१-४८० ४८०-४७९ ४७९-४७८ ४७८-४७७ ४७७-४७६ ४७६-४७५ ४७५-४७४ ४७४-४७३ ४७३-४७२ वैशाली ३ चौमासे ६ चौमासे १ चौमासा नालन्दा (राज.) वैशाली मिथिला ४२ राजगृह नालन्दा (राज.) मिथिला मिथिला राजगृह पावा मध्यमा (पावापुरी) २५ परिशिष्ट सं. ६ भगवान श्रीमहावीर का दीर्घ और महान तप, उसका समय एवं स्थान आदि सह भूमिका-स्वर्ण की शुद्धि जिस प्रकार अग्नि से होती है उसी प्रकार आत्मा की श्रेष्ठ और आत्यन्तिक शुद्धि क्षमा-भावनायुक्त तपश्चरण-तपश्चर्या रूपी अग्नि के द्वारा होती है। इस शुद्धि को भावशुद्धि कहा जाता है। परन्तु इस शुद्धि के लिये प्रथम बाल्य शुद्धि की आवश्यकता है। SUAL ४७१-४७० २०. कल्पसूत्र मूल के दो भद्दियाए' पाठ से ५, ६ दोनों चौमासे भदिका में होना निश्चित २४. चौमासा के प्रारम्भ के १५ दिन 'मोराक' में बिताकर शेष चौमासा अस्थिक गाँव में होता है। यह भद्रिका एक नगरी थी, और उस समय यह अंग देश की राजधानी थी। निकाला था, इसका मूल नाम वर्धमान था। 'आवश्यक' सत्रकार भदिका में एक ही चातुर्मास करने का और दूसरा चौमासा भद्दिल २५. जनपद' शब्द देशवाचक समझना चाहिए। विदेह जनपद अथवा विदेह देश दोनों समानार्थक है। नगर में किये जाने को सूचित करते हैं, जो नगरी मलयदेश (उत्तर प्रदेश) की तत्कालीन २६. 'आवश्यक सूत्र' में यहाँ चातुर्मास करने का वर्णन है। राजधानी थी। भदिल का चौमासा पाँचवाँ जानना चाहिए। २७. जनश्रुति में नालन्दा के क्षेत्र में और वहाँ लगातार १४ चौमासे किये थे, ऐसा सुना जाता २१. कोई आलम्भिका कहते है परंतु दोनों एक ही स्थान का निर्देश करते है। है, परंतु वास्तव में केवल नालन्दा में नहीं अपितु राजगृह और नालन्दा दोनों के मिलाकर २२, भगवान ने गुणशील चैत्य में बहुत बार उपदेश दिया है। 'कल्पसूत्र' का वाचन वहीं हुआ १४ समझें। अलग गिने तो ३ नालन्दा और ११ राजगृह में, और वे भी एक साथ नहीं, था। यह चैत्य नालन्दा में है। चैत्य में उपदेश दिया इसका तात्पर्य यह कि चैत्य के बाहर बल्कि अलग-अलग वर्ष में किये थे। नालन्दा यह राजगृह की उत्तर दिशा का महत्त्व का विशाल खाली प्रदेश हो, वहाँ दिया, परंतु खाली जगह प्रायः अनामी हो तो उसे किस रूप | उपनगर था। से जाना जाय? इसलिये समीपवर्ती चैत्य का निर्देश किया जाता है। | २८. मिथिला नगरी को मिथिला देश भी कह सकते है। एक समय यह नगरी विदेह की २३. मूल नाम 'अपापापुरी' था। राजधानी थी। ८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy