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________________ १० मध्यमा" अथवा "मध्यमा पावा" अथवा "मध्यमा" के नाम से पहचानी जाती थी। आज वह बिहार प्रान्तवर्ती है। भगवान का अन्तिम चातुर्मास और निर्वाण यहीं हुआ था। जैनों का यह आज पवित्र तीर्थधाम है। देखिये- अपापापुरी शब्द (चौ. ४२ बाँ) पृष्ठ चम्पा - चम्पा का ही एक शाखानगर। (चौ. ४) प्रणी भूमि - बंगाल प्रदेश का एक विभाग है। महावीर के समय में उसकी अनार्य प्रदेश में गणना होती थी, बाद में यह आर्य प्रदेश हुआ था। लाढ -राठ इसी के ही भाग थे। (चौ. ९ वाँ) • ग्राह्मण कुण्डगाम—विदेह की राजधानी वैशाली के समीप का स्थल है। मूलनाम कुण्डगाम अथवा कुण्डपुर था। उसके दो विभाग थे। एक उत्तर का और दूसरा दक्षिण का उत्तर विभाग क्षत्रिय प्रधान था और दक्षिण विभाग ब्राह्मण प्रधान था। उत्तरविभाग 'क्षत्रिय कुण्डगाम' और दक्षिण विभाग 'ब्राह्मण कुण्डग्राम' से प्रसिद्ध था। * • पत्रिका (भद्दीया) अंगदेश की प्रसिद्ध नगरी यहाँ भगवान ने छद्मस्थावस्था में चौमासा किया था। (चौ. ६ वाँ) भहिलनगरी महावीर के समय की मलयदेश की राजधानी। (चौ. ५ बाँ) * मध्यमा— पावा का ही उपनाम रूप से प्रचलित हुआ और समय व्यतीत होते पर्यायवाची हुआ, दुसरा नाम 'मध्यमा' था। (चौ. ४२ वाँ) महासेन उद्यान — पावामध्यमा नगर का बाहरी उद्यानस्थल है। केवलज्ञान हुआ उसी रात्रि को ही भगवान ने ४८ कोस का विहार करके दूसरे दिन जिस वन में पहुँचकर समवसरण में बैठकर उपदेश दिया और जहाँ ११ ब्राह्मणों को प्रतिबोध देकर प्रवज्या दी, संघ स्थापना और शास्त्र - सर्जन ( द्वादशांग का) भी किया, वही यह स्थल है। (अधिक परिचय हेतु पढ़िये चित्र परिचय संख्यांक ३७ ) मोराक सन्निवेश——–वैशाली के आस-पास का कोई गाँव । राजगृह महावीर काल के मगध की सुविख्यात और महान् राजधानी थी। वर्तमान में बिहार प्रान्तवर्ती राजगिर - राजगिरि के आसपास का प्रदेश माना जा सकता है। उस समय में समृद्धि के शिखर पर पहुँचा हुआ, भगवान के उपदेश, धर्मप्रचार और चातुर्मास रहने का सबसे बड़ा और दृढ़ केन्द्र था। इसके बाहर बहुत से उद्यान थे, परन्तु भगवान तो गुणशील-गुणशिलक चैत्य नाम के उद्यान में ही ठहरते। यहाँ अनेक बार उनके समवसरण रचे गये। भगवान ने हजारों को दीक्षा दी। राजा रानी, राजकुमार सेनापति आदि अधिकारीवर्ग को तथा लाखों-करोड़ों प्रजाजनों को अपने संघ में प्रवेश दिया। यह सब इसी नगर में हुआ। भगवान का यह अत्यन्त जोरदार और मजबूत केन्द्र था। ( चौमासे बारी-बारी से कुल ग्यारह किये ) लाढ़ - पश्चिम बंगाल का कुछ हिस्सा 'प्रणीत' 'लाढ' अथवा 'राढ' के नाम से प्रसिद्ध था। कल्पसूत्र टीका में इस प्रदेश के लिये 'प्रणीतभूमि शब्द प्रयोग किया है। इससे अनार्य माने जानेवाले प्रणीत, लाढ अथवा रात ये नाम एक ही प्रदेश के पास पास के स्थलसूचक है, यह सम्भव है और उसी प्रदेश में वज्रभूमि और शुद्धभूमि के नाम से प्रसिद्ध पेटा प्रदेश थे। ये प्रदेश भी अनार्य ही थे। भगवान इस धरती पर दो बार आये थे। वहाँ विचरण-विहार किया तब क्रूर और अन्य मनुष्य से सर्वथा असल्य जैसे भीषण उपसर्गो, कष्टों - परेशानियों को सहन किया था। चौमासा के लिये किसी के द्वारा स्थान न दिये जाने पर वृक्ष के नीचे ही चौमासा निकालकर उन्होंने तप, ध्यान आदि की साधना की थी। महावीर के समय में यह प्रदेश अनार्य था, परन्तु बाद में साधु-सन्तों के प्रचार से लोग आर्य जैसे संस्कारी बनने से - किया गया है। आवश्यकसूत्र मूल-नियुक्ति चूर्णि और टीकाकार भी पावाए (मज्झिमाए) का उल्लेख करते हैं, 'महावीर चरित' में गुणचन्द्रमुनि ने भी 'आवश्यक ग्रन्थकार का अनुसरण करते हुए "पावाए" बताया है। और भी आगे 'पावापुरीए ऐसा लिखकर स्पष्ट पावापुरी शब्द ही प्रयोग किया है। इसलिये नगरी के नाम में प्राचीन 'पावा' को मान्यता देते हैं। सुबोधिका टीकाकार का मत किस आधार पर स्थापित हुआ है, यह ज्ञात नहीं हो सका है परन्तु उसे मान्य रखें तो सामान्य रूप से 'पावा' अथवा 'पावापुरी' ऐसा नाम निर्वाण की घटना के बाद के प्रसंगों में उपयोग करना चाहिए। उस काल में 'पावा' तीन थी ऐसा इतिहासकार कहते है। उसमें यह पावा दोनों के बीच होने से वह 'पावा मध्यमा' अथवा 'मध्यमा पावा' से जानी जाती है। १० प्रणीत भूमि वज्रभूमि- -लाक राळ प्रदेश, वे सभी (पश्चिम) बंगाल की अनार्य प्रदेश की भूमि के नाम है। 'कल्पसूत्र' मूल में इसके लिये 'पणी अभूमि' शब्द है। क्या पुण्यभूमि के अर्थ में ह्रस्व 'इ' युक्त पणिअभूमि' (प्रणीतभूमि) नाम हो सकता है? जब कि दूसरे चरित्रों के अन्तर्गत उसे लाढ -राढ के नाम से प्रसिद्धि दी गई है। ७८ Jain Education International ११ वह प्रदेश आर्य बना था। इससे आगम में जहाँ २५॥, आर्यदेश की सुचि तैयार की है, उसमें उसे 'आर्य' रूप से सूचित किया है। (चौ ९ वाँ) बल्स - उत्तर प्रदेशवर्ती एक देश है। इसकी राजधानी कौशाम्बी थीं, जो यमूना नदी के किनारे बसी हुई थी। वहाँ का राजा शतानिक और इस का पुत्र उदयन भगवान महावीर के भक्तजन थे। याचाला - श्वेताम्बी नगरी के समीप का नगर भगवान का शेष आधा देवदूष्यवस्त्र काँटे में लग जाने से गिर गया वह घटना यहीं वाचाला के समीप में ही हुई थी। वाचाला के उत्तर-दक्षिण ये दो विभाग होने के कारण वह उत्तर वाचाला और दक्षिण वाचाला के नाम से प्रसिद्ध थे। वाणिज्यगाम – वैशाली नगरी के समीप का समृद्ध और प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र (चौ. कुल छह किये) * विदेह (जनपद) देश—- गण्डक नदी के समीप का प्रदेश। इसकी राजधानी (महावीर प्रभु के समय पूर्व) मिथिला थी, जहाँ जनक राजा हुए थे। परन्तु बाद में इस देश की राजधानी वैशाली हो गयी। इस विदेह देश में महावीर अवतरित हुए थे। * वैशाली—यह विदेह देश की सुप्रसिद्ध राजधानी थी। यह नगरी एक इतिहासप्रसिद्ध नगरी थी। यह नगर जैनधर्म का प्रधान केन्द्र था और वहाँ जैनों का काफी बोलबाला थी। (चौ. कुल छह किये) शूलपाणि यक्ष चैत्य — यह चैत्य अस्थिक गाँव की सीमा पर स्थित था। इसी मन्दिर में चौमासा करते हुए भगवान को शूलपाणि ने उग्र उपद्रव किये थे। * श्रावस्ती - कुणाल देश की अथवा उत्तर कोशलदेश की राजधानी । गोशालक ने तेजोलेश्या नामक दाहक शक्ति का उपद्रव इसी नगर में किया था। आजीव (वि) क सम्प्रदाय के यह विख्यात केन्द्र था। (चौ. १० वाँ) सुरभिपुर—विदेह से मगध जाते समय बीच में अवस्थित स्थान। परिशिष्ट सं. २ भगवान श्री महावीर के २७ भय भूमिका – जैन दर्शन व जैनतत्त्वज्ञान की आधारशिला पूर्वभव जन्म है। यदि यह न मानें तो धार्मिक अथवा आध्यात्मिक सभी मान्यताएँ और व्यवस्थाएँ टूट जायेंगी और उसके लिये की जानेवाली साधना भी अनावश्यक हो जायेगी। पुनर्जन्म या जन्मान्तर इसीलिये ही अच्छे जन्म के लिये अच्छी साधना आवश्यक है। यही साधना-आराधना (गतिमान और आयुष्य कर्म का क्षय कराकर ) जन्मान्तर का सदा के लिये अन्त लाकर, अनन्त सुख के स्थानस्वरूप सिद्धि को प्राप्त कराती है। प्रत्येक आत्मा शाश्वत है। अतः उसका आदि या अन्त होता ही नहीं है। उसका विविध योनियों में परिभ्रमण अनन्त काल से होता आया है। भगवान महावीर की आत्मा भी मिथ्यात्व अज्ञानादि कर्म के पराधीन होकर भवचक्र में घूम रही थी। इसमें नपसार नामक भव में जैन निर्ग्रन्थ मुनि का संसर्ग हुआ। धर्मोपदेश सुनने से सत्य ज्ञान का प्रकाश उदित हुआ, जिसे जैन दर्शन में 'सम्यग्दर्शन' कहा जाता है। यह दर्शन ही मोक्ष का बीज होने के कारण परम्परा से वह मोक्ष फल को प्राप्त कराता है। आत्मिक विकास में कारणरूप सम्यग् दर्शन की प्राप्ति जिस भव से हुई, उसी भव से भवों की गणना प्रारम्भ करने की प्रथा जैन दर्शन में है। यहाँ छोटे-छोटे सामान्य भवों को ११. प्रजा के लिये या प्रदेश के लिये आर्य-अनार्य की व्याख्या कोई स्थायी नहीं हुआ करती । [ यह बात बृहत्कल्प (-छेद) सूत्रवृत्ति तथा पृथ्वीचन्द्र चरित्र में बतायी गई है ] जो देश-प्रदेश एक समय धार्मिक संस्कारों के कारण आर्य नाम से विख्यात हुए हों, वे साधु-सन्तों के दीर्घकालपर्यंत के विरह से उपदेशाभाव होने पर अनार्य हो जाते हैं, और जो देश-प्रदेश अनार्य हों, वे साधुसन्तों के बिहार से सत्समागम प्राप्त होते ही आर्य बन जाते हैं। जैसे राजा सम्प्रति ने अहिंसा, दया आदि धर्म का प्रचार किया जिससे अनेक प्रदेश आर्य बने थे। इसी लिये बाद में शास्त्रकारों को आर्य देश-प्रदेशों की सूची में परिवर्तन करना पड़ा था। परिणामस्वरूप देश मर्यादा को गौणरूप देकर उन्होंने सीधी-सादी संक्षिप्त व्याख्या करके आर्य-अनार्य के विवाद पर पर्दा डाल दिया है। उन्होंने इस प्रकार व्याख्या प्रस्तुत की कि जहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना, विकास और वृद्धि हो, वह प्रदेश आर्य ही कहा जाता है। जहाँ वह न हो, वह अनार्य। यद्यपि इस विषय में वैदिक और बौद्ध मर्यादाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार की है। १२. देखिये - चीनी यात्री 'युआन च्वांग' लिखित 'यात्रा प्रवास' ग्रन्थ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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