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________________ कौशल - जनपद—उत्तर प्रदेश में आया हुआ एक देश उसकी राजधानी श्रावस्ती थी। कौशाम्बी—उत्तर प्रदेश में प्रयाग के समीप का प्रदेश। महावीर के समय में यह नगरी वत्सदेश की राजधानी थी। यहाँ का राजा उदयन और उसकी माता राजमाता मृगावती महावीर के परम भक्त थे। क्षत्रियकुण्ड गाम - बिहार जम्मुई स्टेशन से १८ माईल दूर मुंगेर जिल्ला का लछवाड़ ग्राम है। वहाँ से ३ माईल दूर क्षत्रियकुण्ड तीर्थ है, वर्तमान में यही स्थान सैंकड़ों वर्षों से माना जाता है। लेकिन जैन- अजैन पुरातत्त्वविदों की ऐसी मान्यता है कि मुजफरपुर जिले के बेसाड़पट्टी के समीप आया हुआ जो वसुकुण्डगाँव है वही प्राचीन क्षत्रियकुण्ड ग्राम है। यह स्थल महावीर की जन्मभूमि थी। वह वैशाली के समीप में आया हुआ एक राज्य था, इसी लिए वैशाली का ही उपनगर माना जाता था। उस पर राजा सिद्धार्थ का आधिपत्य था। एक पद्य रचनामे महावीरका 'वैशालिक' नामसे उल्लेख किया है। सचमुच यह गहरी शोधका विषय है। ४. भगवती, कल्पसूत्र, आवश्यकादि आगम और आगमेतर (श्वे - दिग.) ग्रन्थों में इस स्थल के मूलभूत नामरूप से कुण्ड, कुण्डग्रा (गा) म, कुण्डपुर इन तीन शब्दों का उल्लेख हुआ है, और उस स्थल में क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों अलग अलग विभाग में समूहरूप से रहने के कारण उत्तर विभाग में बसे हुए क्षत्रियों के विभाग की पहचान के लिये उसके पूर्व में 'क्षत्रिय' शब्द और शहर होने के कारण उसके आगे 'नगर' शब्द जोड़कर "क्षत्रियकुण्डग्राम-नगर" ऐसा पूर्णनाम प्रसिद्ध हुआ, और इसी तरह दक्षिण विभाग में बसे हुए ब्राह्मणों के विभाग के लिये "ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर" ऐसा पूर्णनाम प्रसिद्ध हुआ। बहुधा उसी नाम का उपयोग सर्वत्र हुआ है। कुण्डपुर का उल्लेख महाकवि असंग, आ जिनसेन, आ. गुणभद्र आदि दिगम्बर विद्वानों ने मुख्य रूपसे किया है। जयधवलाकार ने कुण्डपुरपुर शब्द प्रयोग किया है। दूसरा आचारांग सूत्रकारने नगर शब्द के स्थान पर सन्निवेश शब्द ग्रहण किया है। परन्तु यहाँ सन्निवेश का संक्षिप्त अर्थ न लेते हुए सिद्धार्थ राजा होने से 'नगर' अर्थ का ही ग्रहण उचित है। हेमचन्द्राचार्यने त्रिषष्टि (२-१५) में ब्राह्मणकुण्ड को 'सन्निवेश' और क्षत्रियकुण्ड को 'पुर' रूप से बताया है। ५. वर्तमान के जैन अजैन अनेक इतिहासकारोंने क्षत्रियकुण्ड वैशालीका उपनगर था ऐसा स्पष्टरूप से घोषित किया है। और वे वर्तमान में प्रचलित क्षत्रियकुण्ड को स्थापना - तीर्थ बताते हैं। उनका कहना है कि भूतकाल में यह स्थान विदेह देशमें नहीं था। निम्न हकीकत क्षत्रियकुण्ड का स्थानविषयक विवाद का यथार्थ चित्र क्या है यह समझने के लिये ही दी है। क्षत्रियकुण्ड का स्थान कौन सा है इस विषय में दो मत है। (१) एक मत यह है कि आजकल यात्रियों द्वारा पूजनीय लछुआड़ के पास में जो विद्यमान है वही भगवान का जन्म स्थान है। (२) दूसरा मत यह है कि क्षत्रियकुण्ड वैशाली का ही उपनगर था और आज का वसुकुण्ड गाँव यही क्षत्रियकुण्ड और वही जन्मस्थल है। जो लघुआड़ से दूरवर्ती है। प्रथम लछुआ के पास वाला क्षत्रियकुण्ड स्थान सैंकडो वरसों से मान्य पूजनीय श्वेताम्बर तीर्थ है। और इतिहास प्रेमी मुनिश्री दर्शन विजयजी ( त्रिपुटी) ने एक पुस्तिका द्वारा दलील और प्रमाण से इसी स्थानको प्रामाणिक जन्मस्थल है ऐसा साबित किया है। दूसरे मत के अग्रणी है दो श्वेताम्बरीय तपागच्छीय विद्वान आ. श्री. विजयेन्द्रसूरिजी और मुनिश्री कल्याणविजयजी । आज से २५ वर्ष पहले इन्हीं लोगोंने यह मत अपनी पुस्तिका में जाहिर किया था। इसके अलावा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक पक्ष में सभी गच्छवाले और तपगच्छ के विविध पक्षवाले, स्थानकवासी तेरापंथ और दिगम्बर ये चारों संप्रदाय के साधु और गृहस्थ विद्वानों ने ३०, ४० वर्ष के बीच भगवान श्री महावीर का जो चरित्र लिखा है उन सभीने निर्विवाद रुपसे स्पष्ट शब्द में वैशाली या वैशाली के बगल में पास में अवस्थित भूमि ही क्षत्रिय कुण्ड है ऐसा उद्घोषित किया है। एक बात और भी ध्यान में रखने योग्य है कि आगम में भगवती आदि की टीका में भगवान को 'वेसालिय'- वैशालिक नाम से उल्लिखित किया है और उसका ही अनुवाद पं. श्रीवीरविजयजी ने जल पूजा काव्य में 'वैशालिक मुख दर्शन थाय ऐसी पंक्ति लिखकर भगवान को वैशालिक कहा है। इसीलिये कितनेक लोग वेसालिय-वैशालिक शब्द का अर्थ व्याकरणानुसार विशाला में उत्पन्न हुए ऐसा करते है। लेकिन टीकाकारोंने यौगिक दृष्टि से ओर ही अर्थ किया है। जन्मभूमि सूचक कुछ भी संकेत नहीं किया। विवादास्पद यह विषय पर आज भी खोज चल रही है। Jain Education International गंगा नदी— भारतवर्ष की दो बड़ी मानीजानेवाली नदियों में से एक नदी जैन शास्त्र में इसका मूल क्षुद्र- चुल्ल हिमवन्त पर्वतवर्ती पद्मद्रह में दिखाया गया है। परन्तु वर्तमान भौगोलिक आज उसका उद्भव स्थान हिमालयवर्ती गंगोत्री बतलाते है। अकेले भगवान ने नौका द्वारा छद्मस्थावस्था में दो बार और केवलज्ञान होने के पश्चात् अनेक बार अपने श्रमण श्रमणी संघ के साथ जलमार्गी नौका साधन द्वारा गंगा पार की थी। गुणशील चैत्य — राजगृह का सुप्रसिद्ध उद्यान । भगवान बारबार इस उद्यान में ठहरते थे। यह उनका धर्म प्रचार का प्रधान केन्द्र था। ११ गणधरोंने यही निर्वाण प्राप्त किया था। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में सर्वोत्तम आदरपात्र और पूजनीय 'कल्पसूत्र' शास्त्र के अन्तिम मूलपाठ में अपने आज्ञावर्ती चतुर्विध संघ के समक्ष प्रस्तुत कल्पसूत्र का वाचन "गुणशील-गुणशिलक चैत्य" में भगवान के द्वारा किये जाने का जो उल्लेख मिलता है, वह यही चैत्य है। * चम्पा (नगरी)-भागलपुर के समीप प्रख्यात और जैन इतिहास की प्रसिद्ध नगरी। भगवान जब चम्पा में पधारते तब वहाँ के पूर्णभद्र चैत्य नाम के प्रसिद्ध उद्यान में ठहरते थे। पहले वह अंग देश की राजधानी थी, परन्तु बाद में कूणिक ने उसे मगध की राजधानी बनायी थी। (चौ. ३, १२) छम्माणि (षण्मानी) । पावा मध्यमा के समीप चम्पानगरी जाते समय मध्य में गंगा के समीप यह स्थान था। यहाँ भगवान के कान में काश की काष्ठशूल डालने का प्रसंग हुआ था और पास में ही उसे निकालने का भी उपसर्ग हुआ था। जृम्भिक (का) गाम ऋजुवालिका नदी के समीप आया हुआ एक गाँव है। इसी नदी के तटवर्ती खेत में भगवान को केवलज्ञान हुआ था। देखिये- 'ऋजुवालिका' शब्द । ज्ञातखण्डवन-क्षत्रियकुण्ड नगर के बाहर आया हुआ उद्यान है, जहाँ भगवान ने दीक्षा चारित्र व्रत ग्रहण किया था। दृढभूमि— महावीर के समय में म्लेच्छ बहुल जनसंख्यावाला एक प्रदेश है, जिस भूमि के पेढालग्राम के पोलास चैत्य में संगम देव ने एक रात में बीस उपसर्ग किये थे। आजका गोंडवा का प्रदेश यह स्थल है, ऐसा विद्वान मानते हैं। * नालन्दा – प्राचीन राजगृह का अनेक धनाढ्यों से समृद्ध, सुविख्यात और विशाल उपनगर। प्रसिद्ध जो 'नालन्दापीठ' वही यह स्थल हैं। (चौ. २, ३४, ३८) * पावां (- पावापुरी) पावाएँ कुल तीन थी। यह पावा मगध- जनपदवर्ती थी और वह "पावा ६. भौगोलिक स्थिति को देखते हुए बिहार समय में अन्य अनेक नदियाँ पार की थी। ७. 'छम्माणि' इस प्राकृत नाम का संस्कृत रूपान्तर षण्मानी होता है, और यह अनेक ग्रन्थकारों को मान्य है। ऐसा होने पर भी आवश्यक' सूत्र मलयगिरि टीका के अन्तर्गत 'छम्माणिया' इस प्रकार तत्सम जैसा रूप भी दिया है। ८. प्राचीन नाम 'णागलंद' था। 'सूत्रकृतांग- आगम में इस नाम के अनेक अर्थ बताये है। ९. पावापुरी के पूर्वनाम रूप से 'अपावाए' शब्द द्वारा " अपापा" नामका उल्लेख 'महावीर चरियं' (श्लो. १३९९) में नेमिचन्द्रसूरि ने किया और उन्होंने ही फिर पावा शब्द द्वारा 'पापा' इस नाम का भी निर्णय किया। एक ही नगरी के लिये निर्वाण पहले के वर्णनों में दोनों नामों का उल्लेख दिया है। ऐसा ही उल्लेख हेमचन्द्राचार्य ने भी किया है। उन्होंने त्रिषष्टि (सर्ग ५-१० १२ - ४४०) में प्रथम अपापापुरी का उल्लेख करके फिर निर्वाण से पूर्व के वर्णनों में हस्तिपाल राजा का 'पावापुरी पति के (स. १३-३) रूप में परिचय दिया है। दूसरी ओर कल्पसूत्र मूल के सुबोधिका टीकाकार विनयविजयजी ने व्याख्या में 'अपापा' और 'पावा' के प्रसंग में ऐसा निर्णय किया है कि प्रथम इस नगरी का नाम 'अपापा' था परन्तु भगवान के निर्वाण को अमंगल घटना होने पर देवों ने 'अ' शब्द को निकालकर 'पापा' शब्द रखकर पावापुरी नाम उद्घोषित किया। उसके बाद यह नगरी 'पावापुरी' नाम से जानी जाती है। सुबोधिका टीकाकार ने यह बात अत्यन्त स्पष्ट रूप में लिखी है। इससे उनके मतानुसार स्पष्ट होता है कि निर्वाण होने से पहले की घटनाओं के वर्णन में नगरी का नाम 'अपापा' समझना या लिखना चाहिए। उसके अनुसार उपरोक्त ग्रन्थकारों ने निर्वाण पहले की घटनाओं में दोनों नामों के वैकल्पिक उल्लेख को मान्यता दी है, यह एक विचारणीय बात है। दूसरी ओर कल्पसूत्र मूल में पूर्वनाम 'अपावाए' अर्थात् अपापा (पुरी) था ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया। उसके विपरीत १२२, १४७, संख्या वाले सूत्र में पावाए ( मज्झिमाए) शब्द का निर्देश करके पहले से ही यह नगरी पावा' थी ऐसा स्पष्ट सूचित For Personal & Private Use Only ७७ www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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