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परस्परोदीरित दुःखाः ||4||
वे परस्पर एक-दूसरे को दुःख देते रहते हैं। संक्लिष्टा-ऽसुरोदीरित-दुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ।।5।।
चौथी नरक भूमि से पहले यानी तीसरी नरक भूमि तक नारकी जीव क्रूर स्वभावी परमाधामी देवों के द्वारा दिये गये दुखों से भी पीड़ित होते हैं।
विवेचन : प्रस्तुत सूत्रों में नरक एवं नारकी जीवों के दुख बताये गये हैं। पहली नरक से दुसरी, दुसरी से तीसरी इस प्रकार सातवीं नरक तक अशुभ, अशुभतर, अशुभतम रचनावाले होते हैं। नित्य अर्थात् निरन्तर। गति, जाति, शरीर और अंगोपांग नाम कर्म के उदय से नरकगति में लेश्या, परिणाम आदि भाव जीवन पर्यन्त अशुभ ही बने रहते हैं।
लेश्या : योग और कषाय रंजित परिणामो को लेश्या कहते हैं। छ: प्रकार की लेश्या हैं - कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल लेश्या इनमें प्रथम तीन लेश्या अशुभ और अन्तिम की तीन लेश्या शुभ है। नारकी जीवों में कृष्ण, नील और कापोत यह तीन लेश्या होती है।
नील
पहली और दूसरी नरक में - कापोत लेश्या तीसरी नरक के ऊपर - कापोत नीचे चौथी नरक में
नील पांचवी नरक के ऊपर में - नील नीचे
कृष्ण छठी नरक में
- कृष्ण सातवीं नरक में
परम कृष्ण द्रव्य लेश्या होती है। भाव लेश्या तो छहों होती हैं और वे अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती है।
परिणाम : क्षेत्र के कारण वहाँ के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, संस्थान आदि अनेक प्रकार के पौद्गलिक परिणाम, सातों भूमियों में उत्तरोत्तर अशुभ है।
शरीर : सातों नारकी जीवों के शरीर अशुभ नाम कर्म के उदय से हुंडक संस्थानवाले विभत्स होते हैं। यद्यपि उनका शरीर वैक्रियिक है फिर भी उसमें मल, मूत्र, पीब आदि सभी घृणास्पद अशुचि सामग्री रहती हैं। प्रथम नरक में शरीर की ऊँचाई 7 धनुष 3 हाथ और 6 अंगुल है। आगे की नरकों में क्रमश: दुगुनी होकर सातवें नरक में 500 धनुष हो जाती है।
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