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________________ गर्भसम्मूर्छनज-माद्यम् ||46।। सूत्रार्थ : गर्भज और सम्र्मूच्छिम जीवों का औदारिक शरीर होता है। विवेचन : आद्यम् का अर्थ है पहला। पाँच शरीर में पहला है - औदारिक। गर्भ और सम्र्मूच्छिम रूप से जन्म सिर्फ मनुष्य और तिर्यंच का ही होता है अत: औदारिक शरीर इन दोनों के होते हैं। बैंक्रिय शरीर की विशेषता वैक्रिय-मौपपातिकम् ||47|| सूत्रार्थ : उपपात जन्म लेने वाले जीवों का वैक्रिय शरीर होता है । लब्धि-प्रत्ययं च ||48|| सूत्रार्थ : यह लब्धि रूप से भी होता है। विवेचन : देव और नारकियों को जन्मसिद्ध वैक्रिय शरीर होता हैं। यह शरीर लब्धि विशेष से भी प्राप्त होता है। लब्धि एक तपोजन्य शक्ति है जो तपस्या आदि के द्वारा प्रकट होती है। यह कुछ ही गर्भज मनुष्यों व तिर्यंचों में हो सकती हैं। इनके अतिरिक्त सिर्फ बादर वायुकायिक जीवों में भी वैक्रिय लब्धि मानी गई है। किन्तु उनको यह तपोजन्य नहीं स्वाभाविक है। आहारक शरीर की विशेषता शुभं विशुद्ध-मव्याघातिचाऽऽहारकं चतुर्दश-पूर्वधरस्यैव ||49।। सूत्रार्थ : आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध, बाधा रहित और वह चौदह पूर्वधारी को ही होता है। विवेचन : इस सूत्र में आहारक शरीर की विशेषताएँ एवं प्रयोजन बताया है। किसी सूक्ष्म विषय में सन्देह होने पर उसके निवारण के लिए अर्थात् जब कभी किसी चौदह पूर्वधारी मुनि को गहनविषय में सन्देह हो और सर्वज्ञ का सन्निधान (सान्निध्य) न हो तब वे औदारिक शरीर से क्षेत्रान्तर में जाना असम्भव देखकर अपनी लब्धि का प्रयोग करते है और हस्तप्रमाण छोटा-सा शरीर बनाते है, जो शुभ पुद्गल-जन्य होने से सुन्दर मनोज्ञ होता है, प्रशस्त उद्देश्य से बनाये जाने के कारण विशुद्ध होता है और अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अव्याधाती अर्थात् किसी को रोकनेवाला या किसी से रूकनेवाला नहीं होता। ऐसे शरीर से जहां तीर्थंकर होते है उनके निकट पहुंचकर अपने सन्देह का निवारण कर फिर अपने स्थान पर लौट आते है। यह कार्य केवल अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है।
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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