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________________ तदिन्द्रियानन्द्रियनिमितम् || 14|| सूत्रार्थ - वह (मतिज्ञान) इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) के निमित्त से होता है। विवेचन - इस सूत्र में मतिज्ञान के उत्पन्न होने के दो कारण बताये गये है। ये कारण है - इन्द्रिय और मन। ये दो बाह्य कारण हैं। अन्तरंग कारण तो मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है। मतिज्ञान के भेद अवग्रहेहावायधारणाः ||15।। सूत्रार्थ - मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं। विवेचन - इस सूत्र में मतिज्ञान के अवग्रह आदि प्रमुख चार भेद बताये गये हैं। ___ 1. अवग्रह - नाम जाति आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य रूप वस्तु को ग्रहण करने वाला अव्यक्त ज्ञान अवग्रह कहलाता है। इस ज्ञान में निश्चित प्रतीति नहीं होती कि किस पदार्थ का ज्ञान हुआ है। केवल इतना सा ज्ञात होता है कि “यह कुछ है।' 2. ईहा - ईहा शब्द का सामान्य अर्थ है - चेष्टा या इच्छा। अवग्रह के द्वारा जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानने की चेष्टा करना कि जो शब्द सुने हैं वो किसके हैं - तबले के हैं या वीणा के! मृदु शब्द हैं, इसलिए शायद वीणा के होने चाहिए। 3. अवाय - ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ का निश्चय हो जाना कि ये शब्द वीणा के ही हैं। ईहा में ये शब्द वीणा के होने चाहिए, इस प्रकार ज्ञान होता है जबकि अवाय में यह वीणा के ही है, इस प्रकार का निश्चयात्मक ज्ञान होता है। 4. धारणा - अवग्रह, ईहा, अवाय द्वारा प्राप्त ज्ञान स्मृति में संजोकर रख लेना, कालान्तर में कभी भी विस्मृत न होने देना धारणा है। जैसे जब-जब वैसी आवाज आवे तो ये वीणा की आवाज है यह निर्णय पूर्व की धारणा के आधार से ही होती है। that mar
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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