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________________ * प्रस्तावना * जैन दर्शन का प्रामाणिक अध्ययन करने के इच्छुक जैन-जैनेतर विद्यार्थी एवं शिक्षक यह पूछते है कि जैसे वेदों में गीता, ईसाइयों में बाइबिल, मुसलमानों में कुरान है वैसे जैनों में आगम के पश्चात् ऐसी कौन-सी पुस्तक है जिसका संक्षिप्त तथा विस्तृत अध्ययन किया जा सके। इस प्रश्न के उत्तर में, तत्त्वार्थ सूत्र के सिवाय, मेरे ध्यान में कोई अन्य ग्रन्थ का नाम नहीं आया। __ क्योंकि आगम के विषय बहुत ही विस्तृत है, गहन गम्भीर रहस्यों से भरे पड़े है। जन साधारण तो क्या, बड़े बड़े मनीषियों के लिए भी उनको हृदयगम कर लेना बहुत ही कठिन है। दूसरी बात, आगम तीर्थंकर परमात्मा की वाणी है। उनमें एक विषय नहीं है, अनेकानेक विषय अलगअलग आगमों में है। इससे एक सम्पूर्ण विषय को क्रमबद्ध पढ़ने में अनेक आगम पढ़ने पड़ते हैं। किन्तु वाचक उमास्वाति द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्व की बहुत सी बातें क्रमबद्ध सूत्र रूप में एक जगह संक्षिप्त शैली में संग्रहीत कर दी गई है। अत: इसका अध्ययन भी सरलता से हो सकता है और जल्दी समझ में आ जाता है। जन साधारण और विद्वान मनीषी सभी इससे लाभान्वित हो सकते हैं। ग्रन्थ परिचय : तत्त्वार्थ सूत्र जैन तत्त्वज्ञान का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण संग्राहक सूत्र (ग्रन्थ) है। यह संस्कृत भाषा का सर्वप्रथम जैन ग्रन्थ है। । इसका पूरा नाम तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र है अर्थात् तत्त्वों का ज्ञान कराने वाला सूत्र है। यह समग्र जैन दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में इसे प्रामाणिक रूप प्राप्त है। इसमें सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्र- रत्नत्रयी का युक्ति पूर्ण निरूपण, छह द्रव्य एवं पांच अस्तिकायों का विवेचन, भूगोल, खगोल सम्बन्धी जैन मान्यताएँ, ज्ञान और ज्ञेय की समुचित व्यवस्था तथा नव तत्वों का संपूर्ण विवेचन हुआ है। प्रस्तुत सूत्र दस अध्यायों में विभक्त है जिसमें कुल 344 सूत्र है। प्रस्तुत कृति में दस अध्यायों में से प्रथम पांच अध्यायों का विस्तृत विवेचन किया गया है। शेष पाँच अध्यायों का विवेचन अगले कृतिका में किया जायेगा। लगभग भारत वर्ष के जैन परीक्षा बोर्डो के पाठ्यक्रम में और जैन विश्व विद्यालयों में यह सूत्र निर्धारित है। तत्त्वार्थ सूत्र की रचना का उद्देश्य : वीर-निर्वाण की आठवीं, नवीं शताब्दी में देश में गुप्तकालीन सम्राटों के उत्कर्ष के कारण संस्कृत भाषा का प्रभाव बढ़ रहा था। गुप्तकालीन सम्राट संस्कृत प्रेमी थे। राज सभा में संस्कृत के विद्वानों का विशेष आदर-सत्कार था। फलस्वरूप जनता के ANARAScal A SAD RAO so XIV SO? PAROHersonarPrivateeseoniy Jairt Edacatio internation 43ORAN How.jainelibrary.orgos
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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