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________________ अनत्तर विमानों के देवों की विशेषता विजयादिषु द्विचरमाः ।।27|| सूत्रार्थ : विजयादि चार अनुत्तर विमानों के देव द्विचरम होते हैं। विवेचन : अनुत्तर विमान पांच हैं। पांचों विमान सर्वोत्कृष्ट और सबसे ऊपर होने के कारण अनुत्तर विमान कहलाते हैं। इन पांचों विमानों के नाम इस प्रकार हैं - 1. पूर्व में विजय, 2. दक्षिण में वैजयन्त, 3. कल्पातीत देव पश्चिम में जयन्त, 4. उत्तर में अपराजित और 5. मध्य में सर्वार्थसिद्ध विमान है। पांचों अनुत्तर विमानवासी एकान्त सम्यग्दृष्टि होते है। उनमें से प्रथम चार विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित द्विचरम होते हैं, अत: अधिक से अधिक दो बार मनुष्य जन्म धारण करके मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इसका क्रम इस प्रकार है कि अपने विमानों से च्युत होने के बाद मनुष्य जन्म, उसके बाद अनुत्तर विमान में देव जन्म, वहाँ से फिर मनुष्य जन्म और उसी जन्म में मोक्ष। परन्तु सर्वार्थ सिद्धि विमानवासी देव वहाँ से च्युत होने के बाद केवल एक बार मनुष्य जन्म धारण करके उसी भव में मोक्ष प्राप्त करते हैं। तिर्यंच का स्वरूप औपपातिक-मनुष्येभ्यःशेषास्तिर्यग्योनयः ।।28।। सूत्रार्थ : औपपातिक और मनुष्य के अतिरिक्त सभी जीव तिर्यंच योनी वाले होते हैं। विवेचन : औपपातिक अर्थात् देव और नारक तथा मनुष्य को छोड़कर शेष सभी संसारी जीव तिर्यंच हैं। देव-नारक और मनुष्य केवल पंचेन्द्रिय होते हैं। पर तिर्यंच में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सब जीव आ जाते हैं। देव नारक और मनुष्य लोक के विशेष भाग में होते है तथा तिर्यंच संपूर्ण लोकाकाश में होते हैं। भवनपति देवों की उत्कृष्ट व जघन्य आयु स्थितिः ।।29|| सूत्रार्थ : यहाँ से आयु का वर्णन शुरू होता है।
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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