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________________ देवों के काम सुख काय प्रवीचारा आ-1 - ऐशानात् ।।8।। सूत्रार्थ : ऐशान स्वर्ग पर्यन्त तक के देव काय प्रवीचार अर्थात् शरीर से विषय - सुख भोगनेवाले होते हैं। शेषाःस्पर्श-रूप-शब्द- मन: प्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः ||9|| सूत्रार्थ : शेष देव दो दो कल्पो में क्रमश: स्पर्श, रूप, शब्द और संकल्प द्वारा विषय सुख भोगते हैं। परेऽप्रवीचाराः ||10|| सूत्रार्थ : बाकी के सब देव विषय रहित होते हैं। विवेचन : मैथुन व्यवहार को प्रवीचार कहते हैं। शरीर से मैथुन सेवन को कायप्रवीचार कहते हैं। भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक में पहले और दूसरे देवलोक के देव मनुष्य की तरह काया से काम भोग सेवन करते हैं। तीसरे - चौथे देवलोक में देवी के स्पर्श मात्र से तृप्ति हो जाती है। पांचवे - छठे देवलोक में देवी के रूप दर्शन मात्र से तृप्ति हो जाती है। सातवें - आठवें देवलोक में देवी के शब्द श्रवण मात्र से तृप्ति हो जाती है। नवें से बारहवें देवलोक में देवी के चिंतन मात्र से तृप्ति हो जाती है। कल्पातीत देवों को काम-वासना सताती नहीं है। चतुर्निकाय के देवों के भेद भवनवासिनो-ऽसुर-नाग-विद्युत्सुपर्णाग्नि-वातस्तनितोदधि- द्वीप - दिक्कुमाराः ||11|| सूत्रार्थ : भवनपति देवों के दस भेद हैं - असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार । विवेचन : प्रथम नरक में 13 प्रतर है और 12 अंतर है। ऊपर के दो अंतर खाली है। नीचे के दस अंतरों में दस भवनपति देवों के भवन है यानि तीसरे अंतर में पहले असुरकुमार नामक भवनपति के भवन है एवं आगे क्रमश: 12वें अंतर में 10वें भवनपति दिक्कुमार का भवन हैं। ये देव भवनों में उत्पन्न होते हैं भवनो में निवास करते है तथा भवन प्रिय होने से इन्हें भवनपति देव कहते हैं। n86Pr 2559
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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