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________________ समय देशना - हिन्दी ८१ उपदेश के लिए जा रहे हो, तो बहिरात्मा हो और उपदेश आत्मा के लिए देने जा रहे हो, तो अन्तरात्मा हो। उपदेश शब्द है, शब्द पुद्गल की पर्याय है। वे अच्छे भी निकलते हैं, बुरे भी निकलते हैं। उनमें रागात्मक या द्वेषात्मक भाव भी आ सकता है। परद्रव्य में दृष्टि जाना ही तो बहिरात्मा भाव है। उपदिष्टा उपदेश के लिए नहीं जा रहा है , उपदिष्टा आत्मा के लिए उपदेश देने जा रहा है । क्षयोपशम के लिए आत्मा नहीं है, आत्मा को समझने के लिए क्षयोपशम चाहिए और इतना ज्ञान चाहिए आत्मा को समझने के लिए। जब क्षयोपशम - ज्ञान आत्मा को समझने में सक्षम हो जाता है, तब केवलज्ञान प्रगट होता है। विश्वास रखना, बाहर की भाषा कितनी भी बोल लेना, कि जगत को जानने के लिए कैवल्य प्रगट हुआ है। भूतार्थ नहीं है। जगत के पदार्थों को जानने के लिए कैवल्य हो, इससे बड़ा अज्ञानी कौन होगा? जगत को जानने के लिए इतना पुरुषार्थ किया जाये कि मिथ्यात्व का भंग न करके, सम्यक्त्व का मंडन करके, सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करके, यथाख्यात में लीन होकर जानने गये तो परद्रव्य को । हे मुमुक्षु ! केवलज्ञान परद्रव्य को जानने के लिए नहीं होता। केवलज्ञान निश्चय से निज शुद्धात्म की गहराई को प्रगट करने के लिए होता है। इसलिए भटक नहीं जाना। आपका कहना भी सत्य है, मेरा कहना भी परम सत्य है । क्यों? जाणदि पस्सदि सव्वं व्यवहारणएण केवली भगवं । केवलणाणीजाणदिपस्सदिणियमेणअप्पणां नियमा॥१५९॥नियमसार व्यवहारनय से केवली सर्वज्ञ जगत् के चराचर पदार्थों को जानते-देखते हैं, परन्तु निश्चयनय से निज की आत्मा को देखते और जानते हैं। केवली जगत् के किसी द्रव्य को जानते नहीं, देखते नहीं, क्योंकि जाननेवाला, देखनेवाला सर्वज्ञ नहीं होता। सर्वज्ञ जो होता है, वह वीतरागी होता है और जो जानने-देखने की इच्छा रखता है, वह वीतरागी नहीं होता है, वह सरागी ही होता है । कैवल्य में झलकता है, दिखता है, दर्पण इव, "दर्पण तल इव सकला'' | जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकता है, दर्पण झलकाता नहीं है, ऐसे ही सर्वज्ञ जानता नहीं है, देखता नहीं है। सर्वज्ञ के ज्ञान में स्वतः जनता है, दिखता है। वह कैवल्य की निर्मलता है। जो निर्मलता है, वही प्रत्यक्षता है। आपको लगता होगा कि मैं कुछ हटकर सुन रहा हूँ। यह हटकर नहीं है, यह बिल्कुल सटकर है। हटकर क्षयोपशम होता है। ज्ञानियों के ज्ञान का प्रयोग ज्ञान में नहीं हो रहा है। ज्ञानियों के ज्ञान का प्रयोग अज्ञान में हो रहा है। इतने बल्व जल रहे हैं, वे प्रकाश दे रहे हैं। एक हीटर जला दीजिए तो जितनी विद्युत ये सभी इतने सारे बल्ब खींच पाते हैं, वह एक हीटर खींच लेता है। हीटर विद्युत तो अधिक खींचता है, पर प्रकाश नहीं देता, जलाता है। और बल्ब विद्युत न्यून ग्रहण करता है, पर प्रकाश पूरे कमरे को देता है। आपका क्षयोपशम जो विषयों में जा रहा था, वह हीटर में जा रहा था, वह प्रकाश नहीं देगा, ज्ञानी ! तेरे चिद्रूप को जलायेगा । पर जो क्षयोपशम ज्ञान ज्ञायकभाव को देगा, वह क्षयोपशम कम लेगा, लेकिन तेरी आत्मा को कैवल्य प्रकाश से जाज्वल्यमान करेगा। ध्यान दो क्षयोपशम के लिए भी क्षयोपशम का नाश होता है । ज्ञानीजीव विराज गया कि 'मुझे ज्ञान नहीं होता है', यह किससे बोल रहा है ? 'मुझे समयसार की गाथा याद नहीं हो रही है', यह क्षयोपशम से बोल रहा है कि नहीं? उसी में क्षयोपशम लगा रहा है कि मुझे याद नहीं हो रहा है। तू क्षयोपशम के पीछे क्षयोपशम का ही नाश कर रहा है। जितने में तू हल्ला कर रहा था कि मुझे याद नहीं हो रहा, उतने में याद करने बैठ जाता तो याद हो जाता। क्षयोपशम स्वभाव नहीं है, विभाव है। ज्ञायकभाव स्वभाव है, क्षायोपशमिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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