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________________ ८० समय देशना - हिन्दी फैलती? अपने भक्त का, माता-पिता का नाम लेते नहीं। तेरे नाम लेने से ख्याति फैलती तो जगत के सम्पूर्ण द्रव्यों की ख्याति फैल गई होती । इस भ्रम को निकाल देना । किसी के नाम लेने से ख्याति नहीं फैलती, यशः कीर्ति नामकर्म के उदय से ख्याति फैलती है, विश्वास रखो। जीवों को हर विषय पर अज्ञानता है। आत्मा ने आत्मा से जाना कि नहीं जाना ? आत्मा ने 'कर्ता' आत्मा को 'कर्म', आत्मा से 'करण', जाना 'क्रिया' । इसलिए मैं जैसे पर को जानता हूँ, वैसे ही निज को जानता हूँ। इसलिए ज्ञायकभाव ही ध्रुवस्वभाव है। इस प्रकार समझना है। सातवीं गाथा को बड़े मनोयोग से समझना है। । भगवान् महावीर स्वामी की जय ।। qqq ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं । णवि णाणं ण चरित्तं ण दसणं जाणगो सुद्धो ॥७ स.सा.॥ आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी 'समयप्राभृत' ग्रन्थ में ज्ञायक स्वरूप की बात कर रहे हैं। मेरी आत्मा का शुद्धस्वरूप ध्रुव नहीं है । मेरी आत्मा का असिद्धस्वरूप ध्रुव नहीं है । त्रैकालिक अपरिणामी ध्रुवस्वरूप कोई है तो ज्ञायकस्वरूप है; क्योंकि सिद्ध होते हैं, अशुद्ध नष्ट होते हैं, परन्तु ज्ञायकस्वरूप प्रसिद्ध होता है। "प्रसिद्धोधर्मी', धर्मी प्रसिद्ध होता है। धर्मी अशुद्ध नहीं होता है, धर्मी शुद्ध नहीं होता, धर्मी तो प्रसिद्ध ही होता है। धर्मों के कारण बिडम्बना है, धर्मी को समझ लें तो विडम्बना किंचित भी नहीं है। कोई आत्मा को चिद्रूप कहता, कोई आत्मा को अचिद्रूप कहता, कोई मूर्तिक कहता, कोई आत्मा को अमूर्तिक कहता है। हे ज्ञानियो ! ये धर्म हैं, धर्मी नहीं। ठण्डपना धर्मों में दिखता है, ठण्डपना धर्मी में नहीं है । सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु जीव धर्मों को समझकर धर्मी को जानता है, मध्यस्थ होकर चिद्रूप में मुस्कराता है, परन्तु विसंवाद नहीं करता । अज्ञ प्राणी धर्मों को जाने बिना धर्मों में विसंवाद करता है, और धर्मों के विसंवाद में आकर अविसंवादी भगवान्-आत्मा को भूल जाता है। धर्मों को पकड़कर, धर्मी को छोड़कर,धर्मों में ही झगड़ रहा है। धर्मी को जान लेता तो, तुझे समझ में आता कि धर्मों में नानत्व है, धर्मी में एकत्व है। नानत्व वहीं है, जहाँ एकत्व है । एकत्व को जानकर एकत्व को देखता, तो ज्ञानी कभी झगड़ता नहीं, क्योंकि शरीर एक है। कोई नाक को मनुष्य कहे, कोई मुख को मनुष्य कहे, कोई आँख को मनुष्य कहे, अरे ज्ञानियो ! अंगों को देखदेख कर आप विसंवाद कर रहे हो। अंगी को देख लेता तो एक है। अंगी के लिए अंग है, कि अंगों के लिए अंगी है ? प्रमाण के लिए नय है, कि नय के लिए प्रमाण है ? संभल कर सुनना । नय समझने के लिए प्रमाणों की बलि नहीं देनी पड़ती है। प्रमाण को समझने के लिए नयों का आश्रय लेना पड़ता है। नयों को समझने के लिए प्रमाणों की ओर नहीं जाना पड़ता । प्रमाण अवक्तव्य होता है। धर्मी नानत्वपने से युक्त है, पर धर्मी नानत्व नहीं है। धर्मी नानत्व हो जायेगा तो धर्म हो जायेगा, धर्मी नहीं रहेगा। प्रसिद्धौ धर्मी (परीक्षा मुख सूत्र) । देह में अंग हैं, देह अंग नहीं है । देह अंग हो गई, तो देह नहीं होगी। नय तो नय है, नय प्रमाण नहीं है । प्रमाणों को जानने के लिए नय तो लेना चाहिए, परन्तु नयों को प्रमाण नहीं सौप देना चाहिए। भगवती आत्मा को जानने के लिए क्षयोपशम का आश्रय लेना चाहिए, पर क्षयोपशम के लिए भगवती आत्मा को नहीं सौंपना चाहिए। क्योंकि क्षयोपशम विनाशीक है । क्रम से चलना । आत्मा को समझने के लिए क्षयोपशम का प्रयोग तो करना चाहिए, पर क्षयोपशम के पीछे आत्मा को संक्लेषित नहीं करना चाहिए। आप उपदेश के लिए जा रहे हो, कि आत्मा को उपदेश देने जा रहे हो ? यदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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