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________________ समय देशना - हिन्दी भाव विभाव है। जब तक क्षयोपशम रहेगा, तब तक कैवल्य नहीं होगा । कैवल्य की भाव में क्षयोपशम बैठा है । कैवल्य की सत्ता प्रगट हो जायेगी, उस दिन क्षयोपशम स्वतः चला जायेगा । क्षयोपशम विभाव है। क्षायिकभाव मेरी आत्मा का ध्रुवधाम स्वभाव नहीं है। आत्मा का ध्रुव स्वभाव है । क्षायिक भाव प्रगट हुआ है, पर ज्ञायकभाव कभी प्रगट नहीं हुआ, वह तो है। जो ध्रुव स्वभाव होता है वह न कभी उत्पन्न होता है, न कभी विनशता है । क्षायिक भाव उत्पन्न हुआ है, इसलिए ध्रुवस्वभाव नहीं है । क्षायिकभाव आत्मा का ध्रुवस्वभाव भी नहीं है। क्योंकि क्षायिकभाव कर्मसापेक्ष है, ज्ञायकभाव चैतन्यस्वभाव है। क्षायिकभाव प्रगट हुआ है कर्म के क्षय से। क्षायिकभाव कर्म को देखता है कि कब ये झरे और मैं प्रगट होऊँ। ज्ञायिकभाव किसी कर्म को नहीं देखता । वह कहता है कि मैं तो त्रैकालिक हूँ। "ज्ञायकस्वरूपोऽहं" मैं ज्ञायकस्वभावी हूँ, प्रमाता हूँ, प्रमिति हूँ, प्रमेय हूँ, कर्त्ता हूँ, कर्म हूँ, क्रिया हूँ, करण हूँ, पर मैं तो ज्ञायकस्वभावी ही हूँ । देखो, अनुवृत्ती लगाइये। नहीं लगाओगे तो समझ में नहीं आयेगा । कल के विषय को आज के विषय से जोड़िये । अग्नि, अग्नि है। अग्नि लकड़ी नहीं है। लकड़ी जलती है, पर अग्नि लकड़ी नहीं होती है। हे मुमुक्षु ! ज्ञेय, ज्ञेय हैं, ज्ञायक, ज्ञायक हैं, ज्ञायक ज्ञेय नहीं है, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। भिन्न ज्ञेय ज्ञान देते नहीं, ज्ञेयों में ज्ञान होता नहीं। ज्ञान में ज्ञेय झलकते हैं, पर ज्ञाता ज्ञेयरूप होता नहीं, परन्तु ज्ञाता के ज्ञेयरूप हुये बिना ज्ञान ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं, फिर भी ज्ञाता ज्ञाता है, ज्ञेय ज्ञेय है, अग्नि अग्नि है, ईधन ईधन है। जलती लकड़ी को देखिए। आँखों से नहीं, प्रज्ञा के नेत्रों से निहारिये। जलती लकड़ी दिख रही है। अज्ञानी को अग्नि व लकड़ी में भेद नजर आता नहीं, पर ज्ञानी को अग्नि व लकड़ी में अभेद नजर आता नहीं। हे मुमुक्षु ! परज्ञेय ज्ञाता नहीं, ज्ञाता परज्ञेय नहीं, परज्ञेय के बिना ज्ञाता 'पर' को जानता नहीं, परन्तु जानन मात्र से ज्ञाता परज्ञेयरूप होता नहीं। यदि ज्ञाता ज्ञेयरूप तन्मयभाव से होने लग गया, तो यदि ज्ञाता अग्नि को देखेगा, तो आँखें जलने लग जायेंगी। तो नेत्र का अभाव हो जावेगा । यदि ज्ञेय के अनुसार ज्ञान हो जाता है, तो यदि अग्नि को नेत्र निहारेंगे तो जब अग्नि जलेगी, तो आँखें भी जलेंगी, फिर बताओगे किसको कि हमने आँखों से देखा अग्नि ऐसी होती है। सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान करने के बाद समयसार का ज्ञान नहीं किया, विश्वास रखना, तो उसको तत्त्व का निर्णय सत्यार्थ होगा नहीं। इतने क्षण में अनुभूति कर ली होगी। मिश्र, मिश्र है। मिश्र अमिश्र होता नहीं। मिश्र मिला है, एकमेक है, नीरक्षीरवत् । विश्वास रखना, मिला पीते रहो, पर नीर कभी क्षीर होता नहीं। अरे भोगी आत्माओ ! भोग भोग लो देह-देही में लगाकर । देह देही का संयोग बना बैठा है, पर विश्वास रखो, देह देही का एक संबंध रहा आये, भोगों में लिप्त होते रहो, पर भोग स्वभाव होता नहीं देह देही बनता नहीं। देह के पीछे वैदेही रो रही है तेरे घर में बैठी-बैठी।नहीं मिले वैदेही को राम, तब बिलख रही थी बैठी अकेली अशोक वाटिका में वैदेही। पर राम अपने में बैठे थे, वैदेही रो रही थी। पर ध्यान दो राम मिल गये होते, तो वैदेही क्यों रोती? नयन सुजाये बैठी है वैदेही । पर, धन्य हो ! राम, आपने राज्यसुख नहीं देखा, पर वैदेही को खोजने के लिए जंगल में निकल पड़े। धन्य हो राम, आपने पिता को भुला दिया, माँ व भाइयों को भुला दिया, अवधपुरी को भी भूल गये, पर वैदेही की खोज में निकल पड़े, वैदेही बैठी रो रही थी। हे आत्माराम ! इस देह अवधपुरी को भूल जाओ और तेरी वैदेही/सीता आत्मा है। देह से शून्य मेरी आत्मा ही विदेही है। राम ने तो अपनी विदेही को खोज लिया, पर तुम कैसे वीर कहलाते हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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