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समय देशना - हिन्दी है, और जो आगम में नहीं होता है, वह आपका विषय स्वीकार नहीं होता है।
आप उन जीवों की बात को कभी नहीं स्वीकारना जो "देवता'' के नाम से बताये । एक सज्जन को देव आया। पूछा- कहाँ से आया ? 'सर्वार्थसिद्धि से आया हूँ। मैं मानता हूँ, कि आप नहीं मानोगे, क्योंकि आपने शास्त्रों में पढ़ रखा है कि सर्वार्थसिद्धि से देव नहीं आते हैं। मुझे आश्चर्य यह हुआ कि देश का ख्याति प्राप्त विद्वान् विशुद्धसागर को बता रहा था। मैंने कहा- सर्वार्थसिद्धि का देव तीर्थंकर के कल्याणक मनाने में नहीं आता, तो तुम्हारे यहाँ कैसे आ गया? और सर्वार्थसिद्धि का देव किसी का सिर हिलाने नहीं आता, इतना तुच्छ नहीं होता। जो तुच्छ लोग होते हैं, जो क्षीण पुण्यवान् होते हैं, निम्न जाति के होते हैं, वे ही ज्यादा घूमने की भावना रखते हैं। व्यन्तरादि ही विचरण करते हैं। पर उत्कृष्ट जाति का देव गति, शरीर, परिग्रह, अभिमान से हीन-हीन होता है। यहाँ सिद्धांत पकड़ना। अभिमान भी उन्हें आता है, जो क्षीण पुण्यवान् होते हैं। जिनका पुण्य प्रबल होता है, वे तो शिव पर बैठे हैं, उन्हें अभिमान की क्या आवश्यकता ? जिनको अभिमान आ रहा हो, वे समझें कि वे पुण्यात्मा नहीं हैं । पुण्यात्मा जीव को अभिमान नहीं आता, जो निम्न स्तर के होते हैं, वे ज्यादा उचकते हैं। जो महापुरुष होते हैं, वे भद्रपरिणामी होते हैं। लोक में सबसे बड़ा कोई महापुरुष है, उसका नाम तीर्थंकर है । तीर्थंकर-जैसी आत्मा को गुणस्थानपरक कषाय तो रहेगी, लेकिन उस गुणस्थान में होने पर भी कषाय का उपशमन करके चलते हैं, प्रगट नहीं होने देते।
आप अपने आसपास ही देख लीजिए। गर्दन बहुत ऊँची दिख रही है, हाथ बहुत छोटे-छोटे दिख रहे हैं, नाक चपटी दिख रही है, माथा संकुचा है अब इनके स्तर का क्या पूछना है। न पुण्यात्मा है, न बुद्धि मान है। यदि गर्दन लघु है, माथा चौड़ा है, कान दीर्घ हैं, सुंदर नाक है तोते जैसी लम्बी और जिसके शरीर में रोमावली अल्प है, तो वह दीर्घ आयु भाग्यवान जीव है । यह आयुर्वेद बोल रहा है, लक्षणशास्त्र बोल रहा है, यह सामुद्रिकशास्त्र बोल रहा है। जिसके बोलने में लगे कि घर-घर्र की आवाज आ रही है, वह क्षीणपुण्य वाला जीव है। और जो सोचने के पहले बोल पड़ता है, सोचता बाद में है, वह प्रज्ञाहीन है। जो पुरुष प्रज्ञावान् होता है, वह बोलने के पहले विचारता है। आवाज जोर-जोर से करता है, ये पुण्य की क्षीणता बोल रही है। जिसकी आवाज भारी हो, गंभीर हो और मंदमंद बोलता हो, यह विशिष्ट जीव का लक्षण है। आप अपने आसपास निहार लो। विशिष्ट योगी मिलेंगे, उनकी आवाज को देखना। आपने आचार्य विद्यासागर मुनिराज को कभी चिल्लाते देखा ? नहीं देखा । वो डाँटते भी हैं तो चेहरा नहीं बिगाड़ते और धीमे बोलते हैं। जिस पर दृष्टि पड जाये, वह नीचे से ऊपर गर्दन नहीं कर पाता। शिष्य को समझाया तो जाता है, पर अपने को बिगाड़कर नहीं। तुम समझो या न समझो, पर अपने भाव क्यों बिगाड़ना।।
आचार्य शांतिसागर महाराज की कैसिट की आवाज आ रही थी। वे प्रवचन के बीच में भी 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' उनके लक्ष्य में था । अपने को नहीं भूल रहे थे । शुद्धोपयोग पर बहुत सुंदर कथन किया । शुद्धोपयोग की धारा सप्तम गुणस्थान के पहले होती नहीं। कुछ समय पहले एक मुनिराज कुंथलगिरि में चतुर्थ का पट लगाने लग गये। देखना कि कितनी विषमता थी। उस समय मुनिराज चिन्मयसागर वहीं थे। उन्होंने कहा- एक क्षेत्र में दो धाराएं कैसे रहेंगी? ऐसा कर लो आप आचार्य शांतिसागर के पट को निकाल दो और इसे लगा दो। अब किसकी ताकत थी शांतिसागर के पट को निकालने की?
___ दीक्षा देना और दीक्षित होना, इन दोनों में बहुत अन्तर है। जब तक दीक्षार्थी के अन्तस् स्वभाव को न नाप लिया जाये, तब-तक मुनिराज नहीं बनाना, क्योंकि मुनिराज एक परमेष्ठी पद है। जैनदर्शन में
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