________________
६०
समय देशना - हिन्दी शुद्ध आत्मा उपादेय ही है, हेय नहीं है। इस हेय को तुच्छाभाव से मत देखना । गृहस्थ तत्त्व निर्णय तो करता है, शुद्धोपयोग नहीं होता गृहस्थ को । दूध में पानी मिला पी रहा है गृहस्थ, पर श्रद्धा में दूध में पानी को देख रहा है। शुद्ध दूध तो शुद्ध अवस्था है । मैं यहाँ कह रहा हूँ कि जब भगवान् को भी अपना स्वगत नहीं कह रहा है, फिर परगत विषय आदि हमारे कैसे हो सकते है ?
दुनियाँ में सबसे न्यारा, ये आत्मा हमारा भीगे नहीं पानी में, जले नहीं अग्नि में, सूखे नहीं पवन के द्वारा। श्रमण संस्कृति का मूलसूत्र है, 'कण-कण स्वतंत्र है।' । भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
aaa णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सोउ सो चेव ॥ ६ स.सार ।। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने पाँचवीं गाथा में अपनी लघुता को व्यक्त करते हुए और ग्रन्थ की प्रामाणिकता को प्रधान करते हुए बड़ी सुंदर बात कही कि जो भी मैं कह रहा हूँ, वह स्वानुभव, आगमप्रमाण और गुरु के प्रसाद से कह रहा हूँ। इसमें कदाचित् चूक हो जाये, तो छल को ग्रहण नहीं करना । गुरु प्रसाद और आगम-प्रमाण इन दो शब्दों ने ग्रन्थ की प्रामाणिकता को प्रमाणित कर दिया है और स्वानुभव से कह रहा हूँ, यह उनकी भेदविज्ञान की दशा का द्योतक है और 'चुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्वं' यह लघुता का प्रतीक है कि ऐसे महान योगी जहाँ चूक की कल्पना संभव ही नहीं है, वहाँ पर चूक कहाँ हो सकती है।
उस एकत्व-विभक्त शुद्ध चिद्रूप का व्याख्यान यहाँ आचार्य-भगवान् कर रहे हैं। आचार्य जयसेन स्वामी की टीका देखें, फिर छठवीं गाथा पढ़ेंगे । इस गाथा में शुद्ध समयसार का व्याख्यान है, उस पर दृष्टिपात करो और तन्मय होकर समझना है कि समयसार क्या है, वस्तुस्वरूप क्या है ? एक ओर चरणानुयोग दिखता है तो दूसरी ओर द्रव्यानुयोग की दृष्टि है । पर ध्यान रखना, जब तक चरणानुयोग समझ में नहीं आता है, तब-तक द्रव्यानुयोग की गहराइयों को सुनने का आनंद तो आ सकता है, लेकिन अनुभवन का आनंद नहीं आता । जो चरणानुयोग है, वह तो चरणानुयोग है ही, लेकिन समयसार भी चरणानुयोग ही है। ध्यान दो, अध्यात्म भी चरणानुयोग है। वह कैसे हो सकता है ? भो ज्ञानी ! ब्रह्म-आचरण चरणानुयोग है, तो आत्माचरण द्रव्यानुयोग है । समयसार निश्चय चरणानुयोग है और मूलाचार ब्रह्म चरणानुयोग है । क्योंकि 'समयसार' साध्यभूत चरणानुयोग है और 'मूलाचार' साधनभूत चरणानुयोग है । अपेक्षा लगाते जाइये, कहीं कोई विकल्प ही नहीं आते हैं। जो पूर्व में कहा हुआ एकत्व-विभक्त, अभेद रत्नत्रय से परिणत, मिथ्यात्व व रागादि से रहित परमात्म स्वरूप है, ऐसा अर्थ समझना । मैं उसे कहता हूँ, दिखाता हूँ, अपनी मति के वैभव से और आगम, तर्क, परम गुरु के उपदेश से, अपने स्वात्म वैभव से। स्वकीय संवेदन, स्वकीय अनुभूति, स्वकीय अनुभव उसी का प्रमाणिक है, जो आगम सम्मत है । कोई ये न मान ले कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने अनुभव से कहा है, अन्यथा जैसा उनको अनुभव में आया वैसा कहा, तो जैसा हमारे अनुभव में आ रहा है वह मैं कह रहा हूँ | ध्यान दो, आज की लीला विचित्र है। ऐसे भी जीव मिले, जो कि आगम कुछ कहता है और वे धीरे से बोलते हैं, लगा लेना चाहिए। पूछा कि कैसे लगाऊँ तो बोले कि कुछ विषय अपनी आत्मा से लगा लेना चाहिए।' हे ज्ञानियो ! आत्मा से वही विषय लगता है, जो आगम में होता
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org