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________________ ५६ समय देशना - हिन्दी ही श्रद्धावान् होते हैं । जो निरन्तर सुंदर, आनंद से मुदित, मंद कषाय से उत्पन्न हुआ है। जो कुछ भी प्रगट किया है, वह मेरे द्वारा स्वयं की आत्मा के वैभव के अनुभव से सम्पूर्ण रूप से, एकत्व - विभक्त आत्मा के स्वरूप को यहाँ दिखाता हूँ। कैसे ? मेरा सभी से कहना है, कि वह काम हाथ में न लो जो न कर सको, अगर लो तो उसे पूर्ण करो । मोक्षमार्ग में आया है, तो पीठ दिखाकर मत जाना, समाधि करके चले जाना । क्या कह रहे हैं, मैं एकत्व - विभक्त का बद्ध व्यवसायी हूँ, उसे छोडूंगा नहीं। एक बार जो निर्णय लिया है तत्त्व का, उसे मैं छोडूंगा नहीं। किन्तु उसे मैं स्वानुभव से परीक्षण करके कहूँगा । उसे आप भी स्वानुभव से परीक्षण करना, उसको प्रमाणित करना कि जो मैं कह रहा हूँ वह भूतार्थ है कि नहीं । शुद्धात्मा स्वानुभव - प्रत्यक्ष से ही जानी जाती है । जब स्वानुभव - प्रत्यक्ष हो जाता है, तब दृढ़ता आती है। अपने निज ज्ञाता से, ज्ञायक भाव से, निज ज्ञाता को भी, निज में जानना ही स्वानुभव - प्रत्यक्ष है । जो औदयिकभाव आ रहे हैं, वे आत्मा का धर्म नहीं है । उन औदयिक भाव को स्वानुभव - प्रत्यक्ष से जानते हैं। मनुष्यगति औदयिक भाव है। मैं मनुष्यगति के विपाक को अपने ज्ञान से देख रहा हूँ, भिन्न के ज्ञान से नहीं देख रहा हूँ? मैं मनुष्य हूँ, मैं इसे ज्ञायकभाव से जान रहा हूँ, वेद रहा हूँ। जब आपके परिणाम चलते हैं, तब आत्मा का ज्ञान भी चलता है, उस आत्मा के ज्ञान से कहना कि, हे ज्ञान ! तुम आत्मा के परिणामों को जानो तो, पर इनके साथ मत चलो। देखो तो ब्रह्मभाव आ रहा है, अब्रह्मभाव आ रहा है, देखो तो जैसे नदी के तट पर बैठा जीव पानी में जाता नहीं है, तट पर बैठ कर पानी को आते-जाते तटस्थ होकर देखता है, इसी प्रकार चैतन्य सरिता में भावों का नीर बह रहा है, इसको तू तटस्थ होकर निहार । कौन से भाव आ रहे हैं, कौन से जा रहे हैं, उन भावों के साथ मत जाना तेरा ज्ञाता-दृष्टा भाव है। सड़क पर चलते लाखों को देखते हो, पर अपनी चैतन्य की सड़क पर अपने भावों को देखो जानो परन्तु उनके साथ तुम नहीं जाना । इस सड़क से कितने वाहन निकलते हैं, उन्हें देखते रहते हो छत से, पर एक के भी साथ नहीं जाते । जो परिणामों के साथ जाता है, वह स्वस्थान पर नहीं रहता है, परस्थान पर जाता है। जो अपने स्थान पर बैठकर मात्र निहारता रहता है, वह ज्ञातादृष्टा स्वरूप स्थान पर होता है। बहुत मेहनत लगती है, तत्त्व के अनुभव में। जब स्व में आता हूँ, तब महावीर भी नहीं दिखते, क्योंकि महावीर की अनुभूति भिन्न है और स्व की अनुभूति भिन्न है, विश्वास रखो। घर में मेहमान आता है तो उसका सम्मान करते हो, पर घर में बेटा है, उसका सम्मान नहीं करते हो, फिर भी उसके प्रति श्रद्धा विशेष होती है। मेहमान तो चला जायेगा, यह आप जानते हो, पर बेटा हमारे साथ रहेगा, रोटी तो यही खिलायेगा । ये पर्यायों की पर्याय आ रही है, जा रही है, इनका सम्मान तुम कर लो, राग-द्वेष से, पर ध्रुव सत्य है कि आत्मपुत्र ही तेरा साथ देगा, मेहमान साथ नहीं देंगे । जब वर्द्धमान आयेंगे, तब वर्द्धमान जैसा बन पायेंगे। जब तक वर्द्धमान नहीं आयेंगे, तब तक वर्द्धमान जैसा नहीं बन पायेंगे। आपने नदी को पार किया, नदी से पार होने के लिए ? ऐसे ही पंचपरमेष्ठी के पास रहूँ नौका से पार होने के लिए, अपने को पंचपरमेष्ठी बनाने के लिए। श्रद्धा में यही लेकर चलना पड़ेगा कि नौका को छोडना है तट के आने पर। वैसे ही पंचपरमेष्ठी भी ज्ञेय हो जाते हैं तट पर आने पर । हे महावीर स्वामी ! मैं आपका भक्त तो हूँ, पर आपरूप नहीं हूँ । भेददृष्टि, अभेद दृष्टि । पंचपरमेष्ठी मेरे आराध्य हैं, मैं आराधक हूँ । भेददृष्टि, अभेददृष्टि । लक्ष्य पर दृष्टि डालो । तब तक ही पंचपरमेष्ठी उपादेय हैं, जब तक हमारी सरागदशा है। पर श्रद्धा में परगत तत्त्व ही मानना पड़ेगा। पंचपरमगुरु हेय, उपादेय हैं; पर निज तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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