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________________ समय देशना - हिन्दी ५८ आत्मा में ही है। आचार्यश्री कहते हैं, एकत्वविभक्त को निहारो। आत्मा की धारा नाना रूप बदलती है तो नाना स्वरूप धारण करती है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं, सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला स्याद् शब्द है । जगत में शब्दशक्ति में प्रचण्ड शक्ति है । स्याद् पद विश्व के सम्पूर्ण विवादों को समाप्त कर देता है। स्याद्वाद शब्द सबके मान को गला देता है। चक्रवर्ती की पटरानी व सौधर्म इन्द्र की पटरानी चौक पूरती है तो रत्न को चूर कर देती है। उसी प्रकार स्याद्वाद सूत्र मिथ्यादृष्टि के वज्र हृदयों को चूर कर देता है। सिद्धांत का कोई कर्ता नहीं होता। जिसका कर्ता होता है, वह सिद्धांत नहीं होता। स्याद्वाद शब्द न ऋषभदेव का है, न महावीर का है । सिद्धांत में, स्याद्वाद में जिये हैं वर्द्धमान महावीर सिद्धांत अनादि है । क्यों ? क्रिया बदल सकती है, पर सिद्धांत कभी नहीं बदलता। सिद्धांत और दर्शन में परिवर्तन नहीं होता है। ब्रह्म वही शब्द है जो स्याद्वाद से चिह्नित है। जो शब्द स्याद्वाद से शून्य है, वह शब्द 'जिनवाणी' नहीं है । स्याद् पद से युक्त शब्द ही जिनवाणी है । शब्द मात्र जिनवाणी हो गई तो फिर जितने विपरीत स्याद्शून्य शब्द हैं, वह जिनागम हो जायेगा। कोई जैन भी पुस्तक लिखे, वह स्याद्पद से शून्य होकर लिखता है, तो उसे जिनवाणी घोषित मत कर देना । जैन शब्द से कोई जिनवाणी नहीं, जिनेन्द्र की वाणी जिनवाणी होती है । अभी सुन रहे हो, भविष्य में सुनने को मिले या न मिले, इसलिये संजोकर रखना। जैन शब्द से जिनवाणी है। कई अजैन बन्धु जैनमुनि बने । आचार्य समन्तभद्र क्षत्रियवंश के, पूज्यपाद स्वामी ब्राह्मण थे। जितने बड़े-बड़े प्रकाण्ड साधु हुए, वे ब्राह्मण थे ! भगवान् महावीर के गणधर ब्राह्मण थे। जो मैं स्वानुभूति का वैभव दिखानेवाला हूँ। उसके लिये स्याद्पद से चिह्नित शब्दब्रह्म को मैंने भावआगम से जन्म दिया है। भावश्रुत की प्राप्ति द्रव्यश्रुत से होती है। द्रव्यश्रुत की उपासना नहीं करोगे, तो भावश्रुत नहीं बनेगा। इसलिए बड़ी विनय से जिनागम का पान करो। कैसे करो? कर्ण अंजुलि लगाकर । जैसे प्यासा पुरुष अंजुली लगाकर पानी पीता है, ऐसे ही तत्त्वपिपासु जीव कानों की अंजुली लगाकर जिनवाणी को पीता है। पीयो जब तक नीर है, छठवें काल में नहीं मिलेगा। ये जिनवाणी का स्वाद पंचमकाल तक ही है, छठवें काल में नहीं मिलेगा। और कैसा है ? सम्पूर्ण विधर्म की सेना को नष्ट करने में यह स्याद्पद समर्थ है । अनेकान्तरूप से जिसका जन्म हुआ है। वैभव कैसा है ? निर्मल विज्ञान से । चैतन्य का भेदविज्ञान है, वही निर्मल विज्ञान है। धान्य से कंकणों को कैसे बीना ? एक भी कंकण पिस जायेगा तो पूरा आटा किसकिसायेगा । तूने धान्य को शोध कर फिर पीसा। तू भेदविज्ञान की आँख से देह-आत्मा को भिन्न निहार। किंचित भी चैतन्य भाव तन में आ गया, तो तेरा पूरा आटा किसकिसायेगा। मुख से शब्द तो निकलते रहेंगे कि मैं भिन्न हूँ; तन भिन्न है, पर राग तेरा अभिन्न है। श्रृंगार किसके लिये ? चेतन का श्रृंगार तो संयम है। तन का श्रृंगार तो वही करते हैं, जिसकी शील की सील खो गई है। जिनका शील खोया नहीं है, वे संयम से भगवान्-आत्मा का श्रृंगार करते है। जो दूसरे के दिखाने के लिए करता है, वह व्यभिचारी होता है, क्योंकि पर को भ्रमित करने के लिए तूने श्रृंगार किया है। इतना ध्यान रखना कि यहाँ व्यवहार पक्ष लाना नहीं, यहाँ परमब्रह्म दशा को निहारना । मैं तो नहीं चाहता कि श्रृंगार करूँ, पर किसी को बुरा न लगें, इसलिए श्रृंगार करता हूँ। हे ज्ञानी ! पर को तो तेरा संयम रूप ही अच्छा लगता है, पर तेरा मन का विकार पर के मन में विकार खड़ा कर रहा है। यदि संयम रूप अच्छा न होता, तो निर्ग्रन्थों को, सिर न टिकाता होता। जितना शुद्ध संयमी होता है, असंयमी के भाव उतने For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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