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समय देशना - हिन्दी
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क्रियाएँ हैं, ये शुद्धात्मा की धारा नहीं है । शरीर के स्वस्थ होने के साधन तो हैं। पर ध्यान दो, आत्मब्रह्म श्वास खींचना - छोड़ना नहीं है । आत्मब्रह्म स्व में लीन होना है तो ध्यान दीजिए, श्वांस खींचना - छोड़ना आत्मस्वभाव नहीं है, ये तो शरीर की क्रिया है, लेकिन निज स्वभाव में लीन होना, ये आत्मा का धर्म है। ऐसे परम धर्म को छोड़कर कोई विपश्यना को निहार रहा है, तो कोई प्राणायाम में जी रहा है। पर प्राणों पर जीना भर ही व्यवहार है, तो प्राणायाम स्वभाव कैसा है ? द्रव्य प्राणों को धारण करना आत्मा का स्वभाव नहीं है । द्रव्यप्राण भी संसार में व्यवहारदशा है। चेतन - प्राण आत्मा का शुद्धगुण स्वभाव | प्राण धारण करना मेरा प्रण नहीं, तो प्राणायाम स्वभाव कैसा ? ये तो शरीर को स्थिर करने का साधन है । स्वभाव में लीनता निज में चिरलीन में होने से ही होगा। योगा करनेवालों से पूछता हूँ कि तुम शरीर को इतना घुमाना-फिराना जानते हो, ये तो बताओ कि तेरा अब्रह्म भाव नष्ट हुआ कि नहीं ? अगर नहीं हुआ, तो ये तुम्हारी खोखली क्रिया हमें उपयोगी नहीं है । जब तक अब्रह्म भाव का अभाव नहीं है, ज्ञानी ! पेट को चाहे अन्दर ले जाओ, चाहे बाहर कर लो, पेट के अन्दर-बाहर होने से परम ब्रह्म-भाव प्रगट नहीं होता । परमब्रह्म की सिद्धि चाहिये तो विषयों से अन्दर चले जाओ, साधना से बाहर मत जाओ, कछुआ बन जाओ। अपने शत्रुओं को देखकर वह अपने पाँचों अंगों (दो हाथ, दो पैर, एक सिर) को संकुचित कर लेता है। ऐसे ही शुद्ध उपयोगी, समरसी भावों से युक्त, परमभाव की ओर जानेवाला परम योगी वह होता है, जो कर्मों को निहार कर अपनी पाँचों इन्द्रियों कछुआ के समान छुपा लेता है, उसको निर्वाण की सिद्धि होती है । यह सब जड़ की ही क्रिया है । इससे शरीर स्वस्थ कर लोगे, पर आत्मा का कुछ नहीं होगा । आत्मा अनात्मा ही रहेगी।
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प्रारंभ अवस्था में चित्त को साधने का साधन तो हो सकता है, पर चेतन की प्राप्ति का साधन नहीं है । इसलिए ध्यान दो, बाहरी सिद्धि के लिए यह समयसार नहीं है । स्वात्मोपलब्धि की सिद्धि के लिए समयसार है। वर्णन भिन्न विषय है। वो तो श्रुत है, जिसमें जो जो द्रव्य होगा, सबका वर्णन होगा, पर सब का वर्णन शिव का कारण नहीं होता है। शिव का कारण तो सम्यक्दर्शन- ज्ञान - चारित्र है । वर्णन सबका है, द्वीप, समुद्र, ग्रह, नक्षत्र आदि का है। लोकव्यवहार में सब लिखा है। पर इनको जानने के बाद परमभूत जो सत्ता है, वो चैतन्य भगवान् आत्मा है, और सब परगत हैं। जब तन में विराजे आत्मा को मैं तन से भिन्न ही स्वीकारता हूँ तो परिग्रहों को निज गृह में कैसे स्वीकारूँगा ? आचार्य श्री पदममलधारि देव 'नियमसार' ग्रन्थ में लिखते हैं - दिगम्बर तपोधन अगर किसी परिग्रह को स्वीकारते हैं, तो गात्र मात्र परिग्रह को स्वीकारते हैं । वह भी क्यों ? जब तक निर्वाण की प्राप्ति न हो जाये। स्वात्मोपलब्धि के लिए स्वीकारते हैं, उसकी सिद्धिप्रसिद्धि के लिए नहीं स्वीकारते। योगी को तन व मन भी परिग्रह दिखता है । मन जितना बड़ा परिग्रह है, उतना बड़ा तो तन भी नहीं है। सारे जगत को संचित करने का स्थान इसमें है । कारण में कार्य का उपचार करने से रागभाव से युक्त मन भी परिग्रह है। जब मन पर में जाये, तो परिग्रह है। स्व में जाये तो स्वात्मोपलद्धि का साधन है । बहिरंग परिग्रह पर ही नहीं अन्तरंग परिग्रह पर दृष्टि डालो। जितने अन्तरंग परिग्रह बढ़ रहे हैं, इन सबका सहयोगी मन है ।
इन्द्रियों की प्रवृत्ति या निवृत्ति में कोई स्वामी है, तो मन है । जिसने मन को जीता है, वह जितेन्द्रिय है । जिसने मन को नहीं जीता, वह जितेन्द्रिय होता ही नहीं है । क्योंकि वीतराग संस्कृति में इन्द्रियों को कुचला नहीं जाता है । आँखों को फोड़नेवाली संस्कृति नहीं है, निज अन्तर की आँखों को खोलनेवाली संस्कृति है । सबकुछ खुला हो पर विषय का द्वार न खुले, इसका नाम जितेन्द्रिय है । भावइन्द्रिय, भावमन
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