SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ समय देशना - हिन्दी उपासना से जन्म होता है । स्याद पद समस्त तत्त्व का प्रकाशन करनेवाला है और स्याद्वाद है कथंचित्वाद । ये विवादवाद नहीं, ये साम्यवाद है । स्याद्वाद सम्पूर्ण विवादों का निरसन करनेवाला है। ये कथंचित रूप है । स्याद् निपात है, जो कि हेय-उपादेय की शंका का उपशमन करनेवाला है। ऐसे स्याद्वाद चिह्न से लक्षित जो तत्त्व का उपदेश है, वही शब्दब्रह्म है। जो शब्दब्रह्म अरहंत ब्रह्म से प्रगट हुआ है, लोक के चतुर्मुखी ब्रह्मा से नहीं। समवसरण में जिनका चारों ओर मुख झलकता है, वे परमब्रह्म तीर्थंकर सर्वज्ञ देव हैं । ऐसे परमब्रह्म से उद्घाटित ये शब्द बहुत है और शब्द जो है, वह आत्मब्रह्म को उद्घाटित करता है। इतने सारे लोग शांत बैठे हैं, ये शब्दब्रह्म का वेदन है । शब्दब्रह्म तब बनता हैं, जब आत्मब्रह्म का स्पर्श करके निकलते हैं। अनुभवपूर्वक आप कहेंगे तो लोग विभ्रमित होते है। शब्द को कंठ से कहोगे तो कानों में सुनाई पड़ता है, पर अन्तकरण में सुनाई नहीं पड़ता । इसलिए जो भी कहें, आप ब्रह्म से मिश्रित करके कहें। समझ रहे हैं न? कंठ का बेटा, कि पेट का बेटा? ये शब्दब्रह्म तब बनेगा, जब पेट का बेटा होगा, कण्ठ का बेटा नहीं। कण्ठ का बेटा, तो पड़ोसी के बेटे को कह देते हैं, लेकिन वो दुलार नहीं होता। पर पेट के बेटे से अशुभ शब्द भी बोलो, तब भी हृदय प्रेम का होता है । ये जिनवाणी कण्ठ का पूत नहीं है, ये जिनवाणी शब्दब्रह्म, परमब्रह्म, आत्मपेट का पुत्र है, जो आत्मा से अनुभव करके कहेगा। आचार्य कुन्दकुन्द ने इस शब्द का प्रयोग क्यों किया? मैं शब्दों मात्र से नहीं कहूँगा ,आत्मअनुभव करके कहूँगा। आत्मवेदन करके कहोगे, तो आत्मा में विद जायेगा । आत्मवेदन क्षायोपशमिक ही है। जो स्वानुभव है, वह प्रत्यक्ष अनुभव है । वह कैसा है, इसे समझना है। यहीं लोग भ्रमित हैं, भले ही श्रुतज्ञान से हो । श्रुतज्ञान भी आत्मा का गुण है, वह प्रत्यक्ष है । ज्ञान 'गुण' है, आत्मा 'गुणी' है । गुण गुणी से भिन्न होता नहीं है। इसलिए जो स्वानुभव है, वह परोक्ष नहीं, प्रत्यक्ष प्रमाण है । दर्शनशास्त्र की भाषा में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-प्रमाण है। सिद्धांत की भाषा में परोक्ष-प्रमाण है। अध्यात्म की भाषा में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष-प्रमाण है। कितनी सारी बातें हैं। अध्यात्म शास्त्र को बिना 'न्याय शास्त्र' के समझना संभव नहीं बिना गुरुभक्ति के स्वानुभव की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि श्रद्धापूर्वक ही श्रद्धेय की प्राप्ति होती है। और जब तक श्रद्धा नहीं जमेगी, तब तक श्रद्धेय सर्वज्ञ भी बैठे रहेंगे तो वे सर्वज्ञ भी दिखाई नहीं देंगे। ॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ।। aga यहाँ पर आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी ने परम अध्यात्म शास्त्र ‘समय प्राभृत' में समरसीभूत, एकीभाव जो परम तत्त्व है, उस परम तत्त्व को बताने की प्रतिज्ञा की है। कह रहे हैं कि जो कुछ भी मैं कहूँगा, वह स्वानुभव से गुरुप्रसाद से ओर आगमप्रमाण से कहूँगा, इससे हटकर मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता हूँ। परम समरसी भाव को मैंने शब्दब्रह्म से जाना है। शब्दब्रह्म से जाना है आत्मब्रह्म की प्राप्ति के लिए। पर जो शब्दब्रह्म है, वह आत्मब्रह्म नहीं है । आत्मब्रह्म की सिद्धि का साधन तो शब्दब्रह्म है, लेकिन शब्द परमब्रह्म नहीं है । समयसार शब्दब्रह्म तो है, लेकिन जो शुद्धात्मा है, वही आत्मब्रह्म है । जिसने आत्मब्रह्म को छोड़ दिया हो और शब्दब्रह्म में लग गया हो तो यही मानना कि वह जड़ को छोड़कर पत्तों व पुष्पो में नीर दे रहा है, आत्मब्रह्म से शून्य होकर शब्दब्रह्म के नीर में डूब रहा है। एक ध्रुवसत्य को समझना । कोई श्वास को खींच रहा है, कोई श्वास को छोड़ रहा है, ये शरीर की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy