SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५ समय देशना - हिन्दी पर ध्यान ही नहीं दिया। अचार के मटके फोड़ दिये घर जाकर, अच्छा हुआ। घर में ऐसा होना शुरू हो गया है, तब लगता है कि उपदेश मन से सुना है, मुझे अभी प्रमाण-पत्र मिल गया। ऐसा प्रयोग अनुभूति में लाने लग जायेगा, तो भवावलियाँ चुल्लुभर रह जायेगी। छिद्र से युक्त चुल्लू में भरा पानी अधिक समय तक नहीं टिकता। ऐसे ही वीतरागी के कर्म का नीर अधिक समय तक नहीं टिकता, वो निकल जायेगा। पाँचवीं गाथा में कह रहे हैं, एकत्व-विभक्त स्वरूप हैं वह आगम से कहता हूँ, अनुभव से कहता हूँ, गुरु उपदेश से कहता हूँ। तीन बातों को ध्यान दो, आगम से जाना, गुरु से सुना, अनुभव में जाना, वो भी ध्रुव है। बिना गुरु उपदेश के आगम नहीं जाना जाता, बिना आगम के अनुभव में नहीं उतरा जाता। तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदिदाएज्ज पमाणं चुक्किज्ज छलंण घेत्तव्वं ॥५ समयसार।। हे ज्ञानियो ! ऐसे महान योगी, चौरासी पाहुड के कर्ता, महान अध्यात्म आचार्य, वे भी क्या कह रहे हैं। "चुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।" वे क्या चूक करेंगे? फिर भी लिखते हैं। ऐसे महान आचार्य को भी लिखना पड़ा। क्यों? भगवान् वर्द्धमान के समवसरण में मस्करी था। पार्श्वनाथ के साथ भी कमठ था। इन दोनों ने सोचा था कि बुरा कर रहा हूँ, पर उनके प्रभाव से वे महान बन गये। विरोध शक्ति से शक्ति बढ़ती है । तेरा काम तू कर, मेरा काम मैं कर रहा हूँ। अच्छे काम बन जाते हैं। कोई देखनेवाला दिख जाये, तो पूजा करने में जोश आ जाता है, छल भले ही हो जाये । छात्र का, तुम सभा के बीच में सम्मान करते हो, क्यों? शक्ति बढ़ती है, पर शक्ति से उत्साह, उमंग बढ़ती है। इसलिए पंचमकाल में दीक्षा भीड़ में ही देना चाहिए, एकांत में नहीं देना चाहिए। भीड़ में पूछ लेना कि तू वैराग्य से भरकर आया है, कि भागकर आया है ? पंचपरमेष्ठी की साक्षीपूर्वक, गुरु की साक्षीपूर्वक और समाज की साक्षीपूर्वक आपको दीक्षा दी जा रही है, आपने स्वयं प्रार्थना की है, अब उसका पालन करो, क्योंकि सबके बीच ली है। और एकान्त में दे दें, तो कभी वह कह सकता है कि हम नहीं चाहते थे, इन्होंने जबर्दस्ती दे दी। पंचपरमेष्ठी की साक्षी पर गुरु की साक्षी में लेता है, तो वह छोड़ने से पहले सोचेगा कि कोई क्या कहेगा ? ऐसे महान योगी भी कह रहे हैं कि चूक जाऊँ तो छल को ग्रहण नहीं करना । कहीं मेरे अन्दर अहं/ दम्भ न आ जाये, कि विश्वविख्यात समयसार मैंने लिखा है, उसके निरसन के लिए यहाँ आचार्य महाराज ने लिखा है । मैं भी बहुत ज्ञानी नहीं हूँ। मैंने भी गुरु, आगम, अनुभव से कहा है । जो यहाँ एकत्व-विभक्त्व स्वरूप है, उसे बताता हूँ । उसको बताने में चूक हो जाये तो छल ग्रहण नहीं करना । हे प्रभु ! आपके समयसार की वंदना बाद में, पहले आपको प्रणाम है। यही समयसार है, अपने आपको इतना ऋजु कर लेना। फिर भी आचार्य भगवान् चूक नहीं करेंगे। अरे ! तुम इसमें भी छल ग्रहण मत कर लेना। आजकल लघुता को दीनता समझते हैं। सरलता को जाना कहाँ ? तुम्हारी कठोरता तो कठोरता ही दिलायेगी, सरलता प्रीति ही दिलायेगी। बिल्कुल भयभीत मत होना, कोई कितना ही कठोर व्यवहार करे, फिर भी सरलता मत छोड़ना । मुझे कई लोग सलाह देने आये कि अब आप आचार्य बन गये हो, कुछ तो कठोर बनो । मैंने कहा कि काठ कठोर होता है, हृदय कठोर नहीं होता। अपनी चर्या में कठोर रहना, पर किसी के प्रति कठोरता नहीं बरतना। आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी कह रहे हैं कि जिस एकत्व-विभक्त को मैं कह रहा हूँ, वह एकत्वविभक्त निश्चय से सकल तत्त्व को प्रकाशमान करनेवाला स्याद् पद से चिह्नित है, जिसका शब्दब्रह्म की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy