SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ समय देशना - हिन्दी फिनायल छिड़कवा देना। सबका फल तुम्हें भोगना पड़ेगा। चाहे ज्ञातभाव से करो, चाहे अज्ञातभाव से करो, पर फल को तो सब ज्ञात है। हमसे मत मिलो, अपने से मिलो । यहाँ तो हाथ जोड़ते हो, जहाँ करते हो वहाँ मिलो । मैं बीच में बार-बार पूछ लेता हूँ, जिनवाणी सत्य है कि असत्य है ? सत्य है तो जिनवाणी में जो लिखा, हमारे कर्मों का क्या होगा ? धर्म कितना हो रहा है, कर्म कितना हो रहा है, हृदय से पूछो। टटोल लीजिए, जिनवाणी सत्य है, परिपूर्ण सत्य है, अकाट्य सत्य है । जो आज हँस रहे हो, कल गंगा जमुना बहाओगे। उपाय एक ही है, पानी बहने से रोक सको तो बाँध बाँध लो। संयम का बाँध बाँध लो। भावों की विशुद्धि की ओर चलो, जगत में रहकर जगत से हटकर चलो, जगत में रहकर जगत से बंध करना बंद करो, जगत के बीच रहकर जगत में रहना बंद करो । बंध को बंद करना है तो, मैं तो किसी से नहीं कहता कि, मुनि बन जाओ, क्योंकि मैं भरना पसंद नहीं करता हूँ। जो भरा जाता है, वह खाली जाता है। मैं पाताल तोड़ चाहता हूँ। ध्यान दो, मैं क्या बोल गया, टंकी में पानी भरा जाता है तो सूख जाता है, टंकी खाली हो जाती है, क्योंकि इसमें भरा गया था। जो पाताल से सीधा आता है, वह भरा नहीं जाता, वहाँ से निकलता है। भेदविज्ञान का स्रोत फूटेगा, वो त्यागी बनेगा, तो मिटेगा नहीं। और जिसे भर-भर के त्यागी बनाया जायेगा, तो सूख जायेगा, फिर मिट जायेगा। इसलिए भेदविज्ञान का स्रोत होना चाहिए। दूसरे के भरेभराये वैराग्य से साधु नहीं बनना । अन्दर का वैराग्य का स्रोत फूटेगा, फिर ये काम, भोग, बंध की कथायें तुझे अरुचिकर लगना प्रारंभ हो जायेंगी। खुदाई करो, भराई मत करो । कब तक लेते रहोगे दूसरे के घर से पानी ? क्यों ? चिन्तन में मग्न हो क्या ? जितने क्षण रहते हैं यहाँ, उतने क्षण भावों में निर्मलता रहती है। ये निर्मलता भर नहीं रही है, खोद रही है, इसकी रक्षा करो। किससे, किसकी? अपने से, अपने की। हे ज्ञानियो ! स्वयं ही विषयों की आग उठाई है, स्वयं ही झुलस रहे है, अब रक्षा कौन करे ? अग्नि लगी है, तो तेरे पास कुँआ भी है, उस पानी से सिंचित करना प्रारंभ कर दो। भेद-विज्ञान के नीर को निहार लीजिए, तो विषय-कषाय की अग्नि शांत हो जायेगी। इसलिए कामभोग बंध की कथा नर, नरक आदि देनेवाली है। यह कथा जो सुनी है, परिचित है, अनुभव की है, इसलिए जगत में वह दुर्लभ नहीं है। अगर जगह-जगह कामभोग नजर आता है, तो भेद-विज्ञान की यदि दृष्टि है,तो प्रदेश-प्रदेश पर समयसार नजर आता है। दो पर्यायें तो आपको दिख रही है न, एक तिर्यञ्च एक मनुष्य । एक श्वान गाड़ी में घूम रहा है, एक के सिर में कीड़े पड़े हैं सड़क पर पड़ा है, पर कोई देखनेवाला नहीं है। यह क्या है ? जो एकत्व-विभक्त स्वरूप आत्मा का है, वह सुलभ नहीं है । एकत्व-विभक्त्त यानी राग आदि से सहित व रहित है । जैसे- भोगों को सुना व अनुभव किया, वैसा तूने एकत्व-विभक्त को अनादि से न सुना, न अनुभव किया, न परिचित हुआ, न कभी अनुभूत हुआ है । इसलिए तत्त्व उपदेश कितना ही होता रहे, शीघ्र ही भूल जाता है। और किसी ने एक वर्ष पहले भी गाली दी हो, तो याद रखता है। हम ऐसा नहीं करते। क्यों? उन्होंने ऐसा बोल दिया था। धिक्कार हो, उस क्षण की पर्याय को अभी तक रखे है। तीर्थंकरों ने उपदेश दिया था, परन्तु वह वहीं भूल गया था। था कोटि सा उपदेश हमें सुनाया, धिक्कार है पर मैंने सुना न । मानो सुना, पर गुना न। कई उपदेश सुने, पर भूल गया। हाँ अच्छा उपदेश हुआ, यह कहकर चला गया। पर कैसा हुआ, इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy