SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३ समय देशना - हिन्दी यन्मया दृश्यते रूपं, तन्न जानाति सर्वथा । जानन् न दृश्यते रूपं, ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥१८समाधि तंत्र ॥ जो रूप दिखाई दे रहे है, वे बोलते नहीं, जानते नहीं और जो जानन-देखनहार है वह दिखाई देता नहीं तो मैं किससे बात करूँ? जो दिख रहे हैं, वे देखनहार नहीं हैं और जो देखनहार है, वह दिखाई देता नहीं, इसलिए मैं मौन रहता हूँ ? रागियों से बात करोगे भी तो यही मिलेगा। कोई रस की बात करेगा, तो कोई स्पर्शन की बात करेगा, तो कोई कर्ण की करेगा, तो कोई अन्तस्करण की करेगा, कोई चक्षु, श्रोत, घ्राण की करेगा। विश्वास रखो, जीव इनके अलावा कोई अन्य बात करते दिखाई देते नहीं है। धर्मात्माओं के पास भी जाओगे, तो धर्म के लिए कितने जाते हैं ? अरे ! तुम तो साधु के पास जाकर भी भोग ही माँगते हो, महाराज ! ऐसी परेशानी है, कोई उपाय बता दो । अरे ! सबसे सुन्दर उपाय है कि सबकुछ छोड़ दो, सब परेशानी समाप्त हो जायेगी। वह आप छोड़ता नहीं चाहते, और घर में परेशानी न हो, यह कभी संभव होता नहीं, क्योंकि संसार का स्वभाव ही ऐसा है। संयोग-वियोग, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ ये तो संसारीभूतों का काम है। संजोगविप्पजोगं लाहालाह, सुहं च दुक्खं च । संसारे भूदाणं होदि हु माणं तहावमाणं च ॥ ३६ वारसाणुपेक्खा ॥ इससे मुक्त कोई है, तो भूतनाथ तीर्थंकर भगवान् हैं। आपको समयसार सुनाना तो बहाना है, आप सब के बीच में आकर समयसार को सुनता हूँ, क्योंकि बोलने वाली शब्दवर्गणायें हैं। हिल रहे है ओष्ठ, दंत, तालू । ये पुद्गल की परिणति है। बोलने का रागभाव भी पौद्गलिक है, पर मैं तो मात्र स्वयं को सुननेवाला ही हूँ। कोई बात नहीं। स्थिरता का काल कोई अल्प क्यों न हो, तब भी वैद्य से पछो, शद्ध स्वर्ण की भस्म कितनी देना पड़ती है ? अच्छा नियोग मिला है, जो लोगों को अनुभूति करना सीखना पड़ती थी, वह देखने को मिल रही है । स्वर्ण भस्म को सभी नहीं पचा पाते, क्योंकि स्वर्ण भस्म बहुत गर्म होती है । ऐसे ही समयसार शुद्ध भस्म है, अभ्रक भस्म है, ये तो धीरे-धीरे थोड़ी-थोड़ी देना पड़ती है, और जब उसको पचा लेता है, तो एक मुहूर्त में ही अशरीरी-सिद्ध-भगवान् बन जाता है । पर उसको पचाने की क्षमता भद्र मिथ्यात्व से प्रारंभ करना पड़ती है, तब कहीं चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है । हे भद्र ! तू क्यों अभद्र होता है, भद्रता की ओर चल। स्पर्शन और रसना ये दो कामेन्द्रियाँ हैं। रसना वश में हो जाये, तो स्पर्शन इंद्रिय की कोई ताकत नहीं बचती । स्पर्शन को वश करना चाहते हो, परन्तु रसना को रस चखाते हो, अतः संभव नहीं होता। स्पर्शन को वश करना है, तो रसना पर नियंत्रण कीजिए। पानी देना बन्द नहीं कर रहे हो, परन्तु पत्र सुखाना चाहते हो, तो ध्यान दो, समयसार जैसे महान ग्रन्थ में कितना सुन्दर चरणानुयोग है । कोई कहना नही चाहता है, कह दूंगा तो त्यागी बनना पड़ेगा। जिसको त्यागी बनने से डर लग रहा है, उसको सिद्ध बनने से डर लग रहा है, क्योंकि शिव का मार्ग यही है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश ये चार बन्ध के भेद हैं। उनका फल क्या है ? नर और नारकी आदि। सत्य तो प्रगट है, छुपाकर कितने ही बैठ जाओ, परन्तु छुपेगा नहीं। मुट्टी बन्द करके बीज तो बोया जा सकता है, पर मुट्टी में फसल छुपाई नहीं जा सकती। फसल आयेगी, तो पूरे खेत पर लहलहायेगी। पाप तो छुपकर किया जा सकता है, पर पाप की फसल तो दुनियाँ को दिखेगी। कितनी गोदामें भर लो, नाली में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy