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________________ समय देशना - हिन्दी माताओ ! संतान को जन्म तो देना, पर स्वभाव नहीं मानना । अधिक लाड़-दुलार करोगे, वही तुम्हारा बैरी बनता है, एक मुनि की पर्याय में माँ अपने ही बेटे को भख गई। इसलिए जगत में कुछ सीखना है तो समयसार के ग्रन्थ से मध्यस्थ होना सीखो । अन्य कुछ नहीं सीखो, केवल सुख-दु:ख में मध्यस्थ होना सीखो, अन्यथा रोष-तोष में किसी का कुछ बिगड़े या न बिगड़े, आपका चेहरा तत्क्षण बन्दर-जैसा होता है । तत्क्षण आयुकर्म का बन्ध आ गया तो सब कुछ बदल जायेगा। वे परम योगीश्वर कैसे समय निकालते थे? ऐसे ही समय निकालते थे, न कोई मेरा अपमान कर पायेगा, न सम्मान दे पायेगा । चित्त में विक्षेप है, तो सम्मान-अपमान है, और चित्त में विच्छेप नहीं तो न सम्मान है, न अपमान है। छत पर गड्ढा है तो काई लगेगी, पानी रुकेगा। और समतल है तो पानी नहीं रुकेगा। तुम्हारे मन में काई लगी है, इसका मतलब है कि तुम्हारे चेतना में गड्डा है। तुम्हारे मन में कोई बात लग गई, कि इन्होंने ऐसा क्यों कह दिया ? इसका मतलब है तेरे मन में गड्ढा है, जिसमें बात रूक गई। समयसार ऐसा नहीं है। शब्दों का समयसार तो जगत में उपलब्ध है, दृष्टान्त को समझकर दाष्टान्त पर जाइये । बर्तन में पिचकन है, तो पानी रुक जाता है और पिचकन नहीं है, तो पानी निकल जाता है। जिसका चित्त पिचक गया है, वहाँ विषयकषाय रुक जाते हैं और जहाँ चित्त निर्मल है, वहाँ पानी गिरता तो है परन्तु बह जाता है । योगियों पर उपसर्ग-परीषहों के नीर तो गिरते हैं, वे स्फटिक के समान बनकर रहते हैं। स्फटिक पर कितने ओले-शोले पानी गिरे, सब बह जाता है। स्फटिकस्फटिक रहता है, "स्फटिक स्वरूपोऽहम' जो किसी के परभाव को स्वीकार नहीं करता। समयसार जैसे ग्रन्थ की अनभति लेना है, तो पहले कर्मसिद्धांत की अनभति लीजिए। तब समयसार में टिक पाओगे। और कर्मसिद्धांत का ज्ञान नहीं है तो समयसार की चर्चा तो कर लोगे, लेकिन समयसार की चर्या में टिक नहीं पाओगे । भूत की पर्याय पर भी जाइये, वर्तमान पर ही दोष नहीं दीजिए। धैर्य चाहिए, धैर्य चाहिए, सब सहन करने के लिए धैर्य चाहिए। परिणति एकदम/बिल्कुल शुष्क चाहिए, बिल्कुल सूखी। आर्द्र परिणति में न वैराग्य टिकता है, न राग टिकता है। भ्रमित तो नहीं हो रहे हो ? शुष्क परिणति चाहिए। शुष्क परिणति को आगम की भाषा में बोलता हूँ, परम उपेक्षा भाव चाहिये । शुक्ल लेश्या जो होती है न, द्रव्यभाव के अंशों में जीव जब जाता है, तब आते हो तो आइये, जाते हो तो जाइये, कुछ नया नहीं है । आना भी तुम्हारा स्वभाव था, जाना भी स्वभाव है, और शान्त रहना मेरा स्वभाव है। इसमें नयापन क्या है ? आपसे द्वेष नहीं है, राग भी नहीं है। एक एलक महाराज, मेरे साथ उन्नीस दिन तक रहे और पुनः हम आचार्यश्री के पास गये, बोले- आचार्यश्री ! इनके साथ नहीं जाना । पूछा- क्यों? आप तो भेजो, पर मैं नहीं रह सकता हूँ। पूछा- बात क्या है ? बोले- ये न रोने दें, न हँसने दें, ऐसी बातें करते हैं, आचार्य श्री ने कहा रोयेंगे तो असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होगा, हँसोगे तो चारित्रमोहनीय कर्म का आस्रव होगा। हास्य भी कषाय है, शोक भी कषाय है, तो क्या करूँ ? मध्यस्थ हो जाओ। इसके लिए साधना चाहिये । ज्ञान का प्रयोग ज्ञान में कीजिए। प्रश्न किया - फिर वात्सल्य कैसे रहेगा? हे मुमुक्षु ! समयसार का वात्सल्य कहेगा कि निज गुण ही मेरे गुण हैं, निज गुण ही मेरा धर्म है । गुणों में अनुराग होना वात्सल्य है, रत्नत्रय में लीन होना परम वात्सल्य है। किसी का नाम लेना वात्सल्य नहीं है, राग है । ये राग मिश्रित वात्सल्य हो सकता है, पर शुद्ध वात्सल्य तो तेरा धर्ममय जीवन है, धर्ममय जीवन मेरा है। किसका नाम लूँ, किससे बात करूँ ? . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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