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समय देशना - हिन्दी स्पर्श कर लिया। तू अपनी बुद्धि में दोनों दुर्ध्यान को लाया पहले । मैं आर्त्त-रौद्र ध्यान का त्याग करता हूँ। अरे ! धर्म्यध्यान में लीन हो जाता। आर्त, रौद्र ध्यानों का नाम लेकर एक क्षण को तूने खोटा नाम लिया क्यों ? हे ज्ञानियो ! किसी रागी का नाम लेना मात्र भी सामायिक भंग करना है । 'मैं रावण का नाम नहीं लेना चाहता हूँ', जितने क्षण तूने ये बोला उतने क्षण तूने 'रावण' का नाम ले लिया। बस, विकल्प को हटाने का विकल्प भी हटा दीजिए, निर्विकल्प हो जाइये । मत कहो कि मैं आर्त रौद्र ध्यान का त्याग करता हूँ। आप तो धर्म्यध्यान में लीन हो जाइये।
मैं उस योगी के स्वभाव की बात कर रहा हूँ जिस योगी ने आर्त रौद्र शब्द को ही अपने कोश से निकालकर फेंक दिया। वे परम सामायिक में लवलीन, निर्विकल्प सामायिक में विराजते वे परमेश्वर, जहाँ पर तन-पिंजड़े का भी विकल्प समाप्त हो चुका है और यहाँ तक कि चैतन्य तत्त्व का विकल्प भी समाप्त हो गया है, चैतन्य तत्त्व में लीन हो गये हैं, ऐसे परमयोगीश्वर स्वसमय में विराजते हैं।
हे मुमुक्षु ! ध्यान दो, इस तत्त्व को सुनने से आपको अनुभूति में आना चाहिए कि जड़धर्म करने की अपेक्षा चैतन्य धर्म करने में कितनी ताकत चाहिए। दस मंदिरों की वंदना करना, और एक णमोकार की माला फेरना, बराबर कर्म की निर्जरा है। ध्यान देना, बात को गहरे से समझना । क्योंकि मंदिर में तो तन साथ जायेगा, बोलने आदि के भाव रहेंगे, पर जाप करते समय परभावों से मन को हटाना और मंत्र में ही मन को लगाना होता है। उस मंदिर में चलने की अपेक्षा से जाप में ज्यादा निर्जरा हो रही है। और एक सौ मंत्रों की माला कर लेना और पाँच मिनट अपने वश में मन को करना, निर्विकल्प ध्यान की ओर ले जाना, बराबर निर्जरा हो रही है । मंत्रजाप की अपेक्षा निर्जरा का साधन 'ध्यान' ज्यादा है। जिनका ध्यान न लगे, उन्हें मंत्रजाप अधिक करना चाहिए, और भगवान की वंदना भी करना चाहिए।
परन्तु गहरी बात यह है कि वे परम योगीश्वर वन व भवन के विकल्पों से शून्य होकर जब विराजते हैं, तब आत्म-उद्यान में निमग्न होते हैं । अनात्मदर्शी विकल्प में आता है कि मैं जंगल में ध्यान करूँगा, भवन में ध्यान करूँगा, दुर्ग में ध्यान करूँगा, खंडहर में ध्यान करूँगा । हे ज्ञानी ! ध्रुव सत्य यह है कि अभी तेरा ध्यान है ही नहीं, इसलिए ध्यान को भगा रखा है। ऐसा परम ध्रुव शुद्ध चिद्रूप का अनुभव करनेवाला वह समरसी योगी है, जिसने भव के अभिनंदन को विराम दे दिया हो, लोकाचार से परे जिसकी परिणति है। लोकोत्तराचार में लवलीन हो, ये सब प्रारंभ के लिए है। निष्णात हो जाये, तो विकल्पों से भी दूर हो जायेगा । प्रारंभ में कहेंगे कि व्यायामशाला, मल्लशाला, मदिराशाला आदि-आदि स्थानों में बैठकर ध्यान नहीं होता है, एकान्त स्थान चाहिए । शून्य एकान्त स्थान, जहाँ दंशमशक आदि की बाधा न हो, स्त्री नपुंसक और बच्चों का गमनागमन न हो, जहाँ तिर्यंचों की आवाज न आ रही हो, ऐसा स्थान ध्यान करने का स्थान है। पर ध्यान रखना, स्थान के खोजने में स्थान मत खो देना। मालूम चला कि स्थान खोजते-खोजते पूरा दिन ही निकल गया, लेकिन एक क्षण भी नहीं बैठा। हाँ ऐसा ही है।
एक प्रश्न है हमारा आपसे - हे मुमुक्षु ! तूने जैनेश्वरी दीक्षा ले ली, और सोचा कि मेरा मन कहता है कि मैं ध्यान करूँ और ध्यान करने के लिए एक "ध्यानकेन्द्र' बना लूँ । हे ज्ञानी ! तूने क्या किया ? 'ध्यानकेन्द्र' बनाने के पीछे तू ध्यान ले गया सेठों के पीछे। फिर जिसका तूने केन्द्र बनाया, वह ईंट-चूने का ही बनेगा। ईंट चूने का केन्द्र बनाने तू चला, भूल गया था कि एक ईंट के पकने में कोटी-कोटी जीवों को
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