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समय देशना - हिन्दी
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को योग करनेवाले योगी तो बहुत सरल हैं। मूलगुणों के पालनहार योगी बनना बहुत सरल है, पर मूलगुणों के विकल्पों से शून्य होकर रहनेवाले योगी बहुत कम हैं, कठिन हैं । तूने क्या किया कि जब तू गृहस्थी में लिप्त था, तो भवन, वाहन आदि के कर्त्तव्य में लीन था और योगीमुद्रा को प्राप्त करके तू पुण्य क्रियाओं में लिप्त हो गया। आखिर में कर्तृत्व भाव का अभाव तूने कहाँ किया ? जब तू गृहस्थ था, तो रागादि के संस्कार तुझे सता रहे थे, वहाँ भी तूने आस्रव ही किया, और यहाँ आकर धर्मोपदेश आदि क्रिया में लीन हो गये, यहाँ भी पुण्य आदि कर रहा है। आखिर में कर्त्तापन कहाँ छोड़ा ? जब तक प्रवचन-उपदेश आदि का भी विकल्प, भाव सतायेगा, तब-तक स्थूल समाधि भी नहीं हो पायेगी, सूक्ष्म समाधि तो दूर है। और यह स्वसमय की धारा एक समय से लेकर असंख्यात समयकाल प्रमाण है । स्वसमय में कब तक रहे ? एक समय को आदि करके अड़तालीस मिनट तक यदि तुम स्वसमय में रह लिये तो, ज्ञानी! तू निर्वाण को प्राप्त कर लेगा। अन्तर्मुहूर्त तक स्वसमय में रह लिया तो निर्वाणश्री ही मिलेगी, और कोई श्री नहीं मिलेगी। इसलिए जब तक प्रतिक्षण/प्रतिपल श्वास-श्वास में निर्विकल्प स्वसमय को प्राप्त नहीं हुये, तब-तक सविकल्प स्वसमय की आराधना को नहीं भूल जाना। क्योंकि जैसी चिन्तन की धारा रहेगी, वैसी परणति बनेगी और जैसी परिणति बनेगी, वैसी पर्याय बनेगी। इसलिए चिन्तन स्वसमय का ही रखना । परसमय को हेयदृष्टि से निहारना, स्वसमय को ही उपादेयदृष्टि से निहारना । हे मुमुक्षु ! कर्मबन्ध की प्रकृतियों (आठ कर्म जो आत्मा में बद्ध हैं) के छटने का विकल्प लाना भी जब पर-समय है तो पर के शरीरों के श्रृंगारों में निज की परिणति को ले जानेवाला स्वसमयी कैसे हो सकता है ? जो नोकर्म तेरा शरीर है, उस स्वयं के शरीर की रक्षा के भाव रखना भी परसमय है, तो परिवार की रक्षा का भाव रखनेवाला स्वसमय में कैसे आयेगा? स्वसमय की धारा तो है, जहाँ तन को स्यालनी भख रही हो, तब भी चेतन उस स्यालनी को नहीं देखता। जहाँ व्याघ्री (बाधिन) अंगअंग को चबा रही हो, वहाँ अंगी (आत्मा) अनंग (आत्मा) में लीन हो जाये। इसका नाम स्वसमय है। अंग के चबाने पर भी अनंगी को निहारे इसका नाम स्वसमय है। और अंग के चबाने में चला गया कि एक चबा रही थी वो पर समय में था तो एक चबाते देख रहा था, सो परसमय में था। परमस्वसमय, कारण स्वसमय, कार्य स्वसमय । अरहंत अवस्था (तेरहवाँ गुणस्थान) में कारण स्वसमय है और चौदहवें गुणस्थान में भी कारण स्वसमय है , तो सिद्ध भगवान् कार्य-स्वसमय हैं । टीकाकार आचार्य-भगवंत अमृतचन्द्र स्वामीजी लगता है कि ज्यादा गहराई में चले गये और इतने गहरे में चले गये, कि जगत की सम्पूर्ण अनुभूतियों को भूलकर टीकामय हो गये, और इतने तल्लीन हो गये कि यथार्थ में समयसार का सार तो आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी पी गये, पान कर गये।
एक-एक शब्द पर ध्यान देना।
"योऽयं नित्यमेव परिणामात्मनि" जो नित्य ही परिणमन कर रहे हैं। किसमें? अपनी आत्मा में, स्वभाव में ठहरते हुये, परभाव से निज को हटाते हुये, निजस्वभाव में अवतिष्ठित होते हुये, किंचित भी परसमय के भाव को न रखते हुए, सामायिक में ही लीन हैं। पर समसामायिक से भी दूर है आपकी भाषा में । मैं समता में जाता हूँ, आर्त्तरौद्र ध्यान को त्यागता हूँ ये समसामायिक है। उस समसामायिक की विषमता से जिन्होंने अपने आपको दूर कर लिया है ऐसा 'मैं आर्त रौद्र ध्यान का त्याग करता हूँ, क्योंकि सामायिक करने जा रहा हूँ। जब तूने इन शब्दों का प्रयोग किया, तब त्याग करने के पहले तूने आर्त व रौद्र दोनों ध्यान का
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