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समय देशना - हिन्दी रक्तवर्ण बना दिया।
___ अरे मुमुक्षु ! आप उसके पीतवर्ण के बनाने के कर्ता नहीं हो, आप प्रयोक्ता हो। आपने डाला है, बनाया नहीं है। आप डालने मात्र के निमित्त कारण हो, बनाने के कारण नहीं हो । बना तो स्वयं की योग्यता से है। ऐसे ही वैज्ञानिकों ने किसी भी वस्तु को बनाया नहीं है, नवीन-नवीन प्रयोग किये हैं। समझ में आ रहा है न । कहीं भी चले जाना, प्रयोगशाला लिखा मिलेगा, कर्त्ताशाला नहीं लिखा मिलेगा। बोलें कुछ भी, पर लिखा सत्य है। अन्वेक्षण किया है, खोजा है।
कार्य-कारण भाव है, कार्य कारण भाव का विपर्यास नहीं है । ये द्रव्यदृष्टि है, इसलिए सहज तो सहज है, असहज तो असहज है। कर्मबंध जहाँ तक दिख रहा है. वह सब असहज है। जहाँ कर्मबन्धता नहीं है, वहीं सहज है। जो जीवत्वभाव है, वही सहज है, पर जीव में जो विकारीभाव हैं, वे विभाव हैं, असहज हैं। फिर आत्मा को कैसे जानें ? कैसे पढ़ें ? ये चौदहवीं गाथा में देखें। समयसार का परम आनन्द है दो गाथाओं चौदहवीं और पन्द्रहवीं में । पूरा ग्रन्थ ही अनोखा है।
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णय णियदं ।
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि ॥१४ समयसार || आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी कह रहे हैं, जो देखता है, जो जानता है। किसको ? आत्मा को। कैसी आत्मा को ? कैसे जानता है ? मैं निर्बन्ध हूँ। साँचे में गुजिया है, ठीक है। फिर भी विश्वास रखना, साँचे से गुजिया अबंध है । व्यवहार से आकार-प्रकार देने के लिए साँचा है। भले ही साँचे में गुजिया हो, फिर भी साँचा तो साँचा ही है, गुजिया तो गुजिया ही है । साँचे में भरे होने पर भी अबध्य है । आत्मा देह साँचे में है, संसारी कर्म के साँचे में है, पर साँचा साँचे में है, और आत्मा आत्मा में है। वह साँचा तो झूठा है, पर आत्मा तो साँची अबध्य ही है। हे मुमुक्षु ! जब तक तू बध्य दशा में अबध्य को नहीं पहचानेगा, तब तक निर्बन्ध होने का पुरुषार्थ नहीं कर पायेगा । यहाँ दो भ्रम हो गये । एक ने पहचानने को स्वरूप मान लिया, और दूसरे ने पहचानने को ही बन्द कर दिया। ये हैं निश्चय और व्यवहाराभासी।
परखी तो परखी है। परखी परखने के लिए ही है । समयसार तो परखी है। परखी से परख लो, लेकिन परखी को ही नहीं परख लो। हुआ क्या है? परखी परखने के लिए थी और इन ज्ञानियों ने परखी को ही परख लिया । ये समयसार ग्रन्थ शुद्धात्मा को परखने की परखी थी और इसे ही परख कर बैठ गये और शुद्धात्मा को परख ही नहीं रहे। समयसार के ज्ञान को समयसार मान बैठा। ये तत्त्व की भूल है और समयसार ग्रन्थ को जाने बिना समयसार को जानोगे कैसे? यह भी तत्त्व की भूल है। ये हमारे व्यवहार पक्ष वाले समय परखी को परखना ही नहीं चाहते हैं और निश्चय वाले परखी को ही परख रहे हैं। वे जन्मान्ध जल्दी सुलझ गये, उनको तो हाथी का ज्ञान हो भी गया, पर तुम अन्धे होते तो तुम्हें समझा देता । तुम तो आँखें खोलकर अन्धे हो रहे हो तो कैसे समझाएँ ? अबद्ध अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष, असंयुक्त, ऐसी आत्मा को शुद्ध जानो। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
aga भव्य बन्धुओ ! आचार्य भगवान् कुन्द-कुन्द स्वामी ग्रन्थराज 'समयसार जी में तत्त्व की अलौकिक
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