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समय देशना - हिन्दी
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आज अनाचार,
नवयुवकों को, विद्यार्थियों को पढ़ाना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है । नैसर्गिक / प्राकृतिक, कह कर जो • व्यभिचार जैसी प्रवृत्ति बढ़ रही है, हे ज्ञानी ! सहज कहकर बढ़ रही है । बोले, सहज क्रिया है । आत्मसाक्षी भाव शब्द का प्रयोग हो रहा है। उस शब्द के साथ व्यभिचार हो रहा है। मर्यादाशून्य होकर आत्मसाक्षी हो रहे हैं । नहीं, आत्मसाक्षात्कार तो भिन्न वस्तु है, आप उसका अर्थ लगा रहे हो, मैं ही होऊँगा,
ज्ञाता होऊँगा, मैं ही ज्ञान होऊँगा, मैं ही प्रश्नकर्त्ता होऊँगा, मैं ही उत्तरदाता होऊँगा, मेरे प्रश्न होंगे, मेरा ही उत्तर होगा, और मेरे में ही होगा, अन्य का नहीं होगा, अन्य में नहीं होगा / जो निजानन्द की लीनता है, वही साक्षात्कार है। सामायिक को आत्म साक्षात्कार का समय दे दिया। जब अभ्यास हो जाये, तो हर समय अपने में रहो । आत्म साक्षात्कार यह नहीं है, ये तो पागलपन, उन्मत्तपन और सामाजिक, धार्मिक बन्धनों से स्वच्छन्दी होना है। यह आत्म-साक्षात्कार की परिभाषा नहीं है । समयसार की परिभाषा यह है क्या ? संयम के बन्धनों को तोड़ देना, यह समयसार की परिभाषा नहीं है । समयसार की परिभाषा है, विभाव-भाव के बन्धनों से दूर होकर, निजानन्द के आनन्द में रमण करना । अनभ्यस्त जीव के हाथ में यह ग्रन्थ दिया जायेगा, अनुभवहीन के हाथ में दिया जायेगा, और पक्ष से ग्रसित जीव के हाथ में दिया जायेगा, तो विश्वास रखना इस ग्रन्थ के साथ व्यभिचार किया जायेगा ।
व्यभिचार का अर्थ आप गलत समझते हो। व्यभिचार का अर्थ है विपरीतपना / विपर्यास और जिसका चिन्तन विपरीत चल रहा है, यह उसकी प्रज्ञा का व्यभिचार है । आप कल्पना करो, अध्यात्म बड़ा आनन्द देता है, रुचिकर विषय है। सबको आनन्द आता है । लेकिन अध्यात्म के साथ विपर्यास मत कीजिए । आज के पढ़े-लिखे लोग गुजरात में एक जगह गये । वहाँ समयसार पढ़ने को कहा । उन्होंने समयसार पर प्रवचन दिये। प्रवचन में ठीक समय पर प्रवचन हाल भर गया और ठीक रात्रि को नौ बजे उन्होंने भोजन - पान किया। पंडित जी से रहा नहीं गया, बोले, ये क्या कर रहे हो ? बोले, पंडित जी ! आत्मा का धर्म मैं समझ चुका हूँ, आत्मा में कोई क्रिया नहीं, आत्मा परिस्पन्दन नहीं, आत्मा कर्त्ता नहीं, यह सहज होता है। इसलिए जो मैं कर रहा हूँ, यह पुद्गल की दशा है, मैं तो शुद्ध हूँ । हे ज्ञानी ! उसने पंडित टोडरमल जी के मोक्षमार्ग प्रकाशक को भी अच्छी तरह से समझ लिया होता, तो पंडित जी साहब कहते हैं, मुमुक्षु ! निश्चयाभासी मत हो जाना। ये निश्चयाभास था । मैं कर्त्ता नहीं हूँ, यह समयसार जी में है। अभी तो ग्रन्थ प्रारम्भ है। ध्रुव सत्य यह है, कि सबसे मधुर कोई अधिकार इस ग्रन्थ में है, तो कर्त्ता कर्म अधिकार है । ग्रन्थ यह कह रहा था । मुमुक्षु ! मेरी पत्नी रो रही है, बेटा बीमार है, दूकान नहीं चल रही है, पूरे परिवार को मैं ही चलाता हूँ, मैं चला जाऊँगा, तो मेरे घर का क्या होगा ? हे ज्ञानी ! तू पर का कर्त्ता हुआ नहीं, पर तेरा कर्त्ता हुआ नहीं तो क्यों कर्त्तव्य भाव में आकर निज स्वभाव को खो रहा है।
"आत्मस्वभावं परभाव भिन्नं"
यह शब्द था वहाँ । जितने वैज्ञानिक हुए हैं, वैज्ञानिकों ने वस्तु बनाई क्या ? बनाई नहीं है, बताई है। भगवान महावीर कोई वस्तु नहीं बना पाये, तो ये वर्तमान के सामान्य वैज्ञानिक क्या बना पायेंगे । हल्दी चूना डाल दिया तो वर्ण कैसा हुआ? वर्ण परिवर्तित हो गया ।
तुम ललाट पर टीका लगाते हो, तो शुद्ध हल्दी का नहीं, चूने की मिलावट से लगाते हो। इसीलिए विचारों में मिलावट है। हल्दी में चूना क्यों ? सुन्दर दिखने के लिए आपने असुन्दरपना किया, एकत्व विभक्त का अभाव करके आपने संयोगी भाव को प्राप्त किया है। आपने हल्दी में चूना डाला तो पीतवर्ण को
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