________________
समय देशना - हिन्दी
२८४ शान्ति है, सहज आनन्द है, जिसमें सहज सुख है। अनुभूति में जाओ, तो जब आप बिल्कुल निश्चिंत होकर बैठे हैं । तब पूछा क्या कर रहे हो ? बोले, निश्चिंत हैं। यहाँ आप रसना का स्वाद ले रहे हो, स्पर्श का स्वाद ले रहे हो, घ्राण का स्वाद ले रहे हो, आप वहाँ किसी इन्द्रिय का स्वाद नहीं ले रहे हो, फिर भी निश्चिंत हो, जो पर उपाधी से रहित आनंद है, वही सहजानन्द है। धन्य हो दिगम्बर मुनि की दशा को । जो सहज आये थे, सहज ही हो गये । आप सहज आये तो, परन्तु कपड़ों में असहज हो गये । शुद्ध तत्त्व को समझो । आप सहज आये थे, प्रकृति से बात कर लो। पहले भीतर सहज हुए थे, कि बाहर सहज थे? एक छोटे से बालक के कपड़े उतारो, तो वह भी कपड़े पकड़ लेता है। बताओ, उसे किस की चिन्ता है ? मन में लज्जा गुण आ गया, यही असहज भाव है। कपड़े क्यों पहने? सहज पहने, कि असहज? जिसने विषयों को सहज कहा था, उससे पूछो कि जैसा माँ की कोख से जन्म लिया, वैसा क्यों नहीं रहता है? इतने कपड़े क्यों पहने है ? ये बाहरी असहज की बात कर रहा हूँ। साम्यभावनी, सहजभाव । असाम्यभाव, यानी असहजभाव । किंचित भी मन में विकार खड़ा हुआ है। तो आप सहजता को खो गये है और चलिए। ये विद्युत प्रवाहित है, इसमें कोई परेशानी नहीं आ रही। (ऋण का धन में, धन का ऋण में लगा दो), जब सहज में बहती है तो, किसी को कष्ट नहीं होता है। जब असहज तार कहीं का कहीं लग जाये। तो आग लग जायेगी, गड़बड़ी हो जायेगा। हे ज्ञानी ! जितनी-जितनी घरों में आग लग रही है, सब असहज की आग लग रही है। जरा भी मन में विकल्प आता है, तो पिता पुत्र में आग लग जाती है, यह असहज भाव है। इसलिए जितने असहज भाव हैं, वे सब दु:खभाव हैं। निज सहजभाव ही परम सुखस्वभाव है। समयसार ग्रन्थ को आप बुंदेलखण्डी में सुन रहे हो। ये सहजभाव, असहजभाव समझ में आ गया । अब समयसार की भाषा में, चिस्वभाव ही सहजभाव है। चिद्स्वभाव में जितने क्रोधादि भाव हैं, सब असहज भाव हैं । चिद्स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता, पर क्रोधादि भावों का अभाव होता है। जिन-जिन का अभाव होता है, वे मेरे सहजभाव नहीं हैं । जो सहजभाव होते हैं, वे त्रैकालिक होते हैं । मैं चैतन्य सिद्धालय में भी होऊँगा। तो भी मेरे चिद्वभाव का कभी अभाव नहीं होगा । पर जिन विकारी भावों से निगोद आदि में गये थे, वे सब विभाव थे, असहज भाव थे, उनका विनाश होता है । छहों द्रव्य सहज है।
"सहजानन्द स्वरूपोऽहम, परमानंद स्वरूपोऽहम्" सहजानन्द के बाद ही परमानन्द क्यों रखा, जो सहजानन्द है, वही तो परमानन्द है, और जो सहजानन्द नहीं है, वह परमानन्द नहीं है। हे मुमुक्षु ! इस उम्र का जब तूफान आता है, और जब उतर जाता है, फिर कैसा लगता है ? पश्चाताप की अग्नि में झुलसता है । जब मन से ब्रह्म का पालन चलता है, तब मानसिक आनन्द होता है। वह अब्रह्म तो आनन्द नहीं है। आनन्द के बाद पश्चाताप नहीं होता। पर जिसमें पश्चाताप होता है, वह आनन्द ही नहीं होता। ऐसा कौन-सा अभागा जीव होगा, जो तीर्थंकर का अभिषेक करने के बाद रोयेगा? कोई नहीं होगा। उसे तो आनन्द आता है। जो आनन्द होता है, उसमें पश्चाताप नहीं होता। जो आनन्दाभास होता है, वह विकार होता है, उसमें पश्चाताप होता है। यह मेरे से नहीं पूछना, यह आपका अनुभव है। जो धर्म करने में आनन्द आ रहा है, वह आह्वादभाव है । न स्वभाव है, न कुभाव है, वह शुभभाव है और विषयों में जो आँसू टपका रहा है, वह शुभभाव नहीं है, वह अशुभभाव है, कुभाव है।
यह तो निर्णय करना पड़ेगा। समयसार ग्रन्थ को समझने के साथ-साथ प्रमेय कमल मार्तण्ड और 'अष्टसहस्री को भी पढ़ना ही पड़ेगा, अन्यथा सहजभाव से मिथ्यात्व में चले जायेंगे । जैन सिद्धान्त को
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org