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________________ समय देशना - हिन्दी २८७ देशना दे रहे हैं। विज्ञ पुरुष ही तत्त्व को समझ सकता है और तत्त्व उपदेश ग्रहण करना अनिवार्य है। जैन न्याय के महान आचार्य अकलंक स्वामी 'लघीयस्त्रय' नाम का ग्रन्थ लिखा । इसमें प्रवचन प्रवेश नाम का अधिकार है । जिस जीव को नय, निक्षेप, प्रमाण का ज्ञान नहीं है, वह प्रवचन में प्रवेश नहीं कर पायेंगे दर्शनशास्त्र की दृष्टि से । जिनके अष्टमूल गुण का पालन नहीं है, वह प्रवचन में प्रवेश नहीं कर पायेंगे, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में लिखा है चरणानुयोग दृष्टि है। जिनका देव, शास्त्र, गुरु पर श्रद्धान नहीं है, वह प्रवचन में प्रवेश नहीं कर पायेंगे, आचार्य समन्तभद्र स्वामी की दृष्टि से। जिनके सात प्रकतियों का क्षय, क्षयोपशम नहीं हआ है, वे सत्यार्थ प्रवचन में प्रवेश नहीं कर पायेंगे, करणानुयोग दृष्टि है आचार्य नेमिचन्द्रस्वामी की । जो पुराण-पुरुषों में श्रद्धा नहीं करते हैं, वे प्रवचन में प्रवेश नहीं कर पायेंगे, प्रथमानुयोग दृष्टि है । प्रवचन प्रवेश के अभाव में प्रवचन उपदेश कैसा ? जब प्रवचन में ही प्रवेश नहीं है, तो प्रवचन का उपदेश कैसा? 'लघीयस्त्रय' ग्रन्थ में क्या लिखा है ? जो तत्त्व ज्ञाता है, वही सम्यक् तत्त्व का उपदेश दे सकता है । जब तक तत्त्व का ज्ञान ही नहीं है, तो तत्त्व का सद्उपदेश आप कैसे कर पायेंगे? तत्त्व का ज्ञाता होना अनिवार्य है। प्रवचन की तैयारी वे करें जो तत्त्व के ज्ञाता नहीं हैं।तत्त्वज्ञाता को कभी प्रवचन तैयार नहीं करना पड़ते हैं, तत्त्व ज्ञाता के अन्दर प्रवचन होते है। इसलिए न्यायशास्त्र कह रहा है, कि सुन्दर वचन की प्रामाणिकता है सुन्दर ज्ञान । असुन्दर वचन की प्रामाणिकता है, असुन्दर ज्ञान । सहज में क्या कर डाला ? विषय-कषाय आदि की प्रवृत्ति में लीन होकर क्या कह दिया? यह तो सहज है, प्राकृतिक है । यह तत्त्वज्ञान की कमी बोल रही थी । सहज है, कि असहज है, जब तक जिनदर्शन का ज्ञान नहीं है । चार्वाक-जैसे दर्शन की प्रवृत्ति हुई हैं, वह इसी सूत्र में हुई है। सूत्र सम्यक् था, पर सूत्र की प्ररुपणा असम्यक् कर दी । जो आत्म-साक्षात्कार का शब्द गूंजता सुनाई दिया था, वह इसी सहज शब्द का दुरुपयोग था। आज समझना, जिसने कर्म की एक सौअड़तालीस प्रकृतियों का ज्ञान नहीं किया, तब-तक ही इनको सहज कहता रहेगा। समसयार की चौदहवीं गाथा को जब तक नहीं समझा, तब तक विषय-कषाय को सहज कहता रहेगा, और जिस दिन चौदहवीं गाथा समझ में आ जायेगी, फिर कहेगा, सोपाधिक है, कर्म-उपाधिक है, सहज नहीं है। क्रोध आता है, यथार्थ बताना, आपको कष्ट देकर जाता है, कि शान्ति देकर जाता है? जिस पर तू क्रोध करता है, उनके परिणामों से पूछो कि कैसा लगता है ? और जो तू स्वयं क्रोध कर रहा है, स्वयं से पूछो कि कैसा लगता है ? जब कषाय स्वयं ही झुलसा रही है, ये न्याय नीति के पक्षों को गौण कर दीजिए, मैं सत्य पक्ष ले रहा हूँ। माना कि यह पेन आपका है, आपका पेन दूसरे ने ले लिया, उसके लिए झगड़ रहा है। सत्य झगड़ रहा, कि नहीं? पर पूर्ण असत्य है। ध्यान दो पेन रागदृष्टि से मेरा है, इसलिए झगड़ रहा है। भूतार्थ है, सत्य है, लेकिन, हे मुमुक्षु ! इसमें तेरा चतुष्टय किंचित भी नहीं है, और पेन के विषाद में आकर अविसंवादी आत्मा के स्वरूप का घात कर रहा है। तू सत्य का प्रयोग कर रहा है, कि असत्य का प्रयोग कर रहा है ? न पेन तेरे साथ जायेगा, न झगड़ा तेरे साथ जायेगा। वो भी पर्याय नष्ट हो जायेगी, लेकिन इस पर्याय में जो बन्ध किया तूने, आत्मा को अशुभ में डाला है। मेरा मकान, मेरी दुकान, मेरा भवन, मेरी भूमि । इस मस्तिष्क को स्वस्थ करो तब सत्य समझ में आयेगा ।सत्य तो मस्तिष्क में तभी आ पायेगा, जिस दिन तू सर्वस्व से सर्वस्व छोड़ देगा, फिर सारी भूमि पर दिखेगी, निज नहीं दिखेगी, फिर भी तू पर में नहीं होगा, निज में होगा। एक कमरे की चौखट के पीछे, हाथ की चक्की के पीछे झगड़ा होते देखा है। दोनों भाई एक-एक पाट ले लेते है, अत: For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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