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समय देशना - हिन्दी
२७२ ये नौ पदार्थ हैं, जो सम्यक्त्व है कारण में कार्य का उपचार है, सम्यक्त्व नहीं है। सम्यक्त्व का कारण है। फिर भी ये सम्यक्त्व हैं। नौ तत्त्वों पर श्रद्धान् करना सम्यक्त्व है। तत्त्व सम्यक्त्व नहीं है परन्तु जो तत्त्व सम्यक् हैं, उन पर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। जो तत्त्व सम्यक् नहीं हैं, उन पर श्रद्धान करना भी सम्यक्त्व नहीं है। क्योंकि लोक में तत्त्व तो अनंत हैं, मानने वाले अनेक हैं। कोई पच्चीस कहता है, कोई सोलह, कोई नौ कहता है। नहीं । 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यक्दर्शनं' प्रयोजनभूत तत्त्वों पर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है और, अहो ज्ञानियो ! अहो जैनियों । मस्तिष्क का भी अब निर्णय करना सीखो । जब ज्ञान बढ़ जाता है न, तो हेयउपादेयपना अपने-आप समझ में आने लगता है। प्रारम्भ में रूढ़ि ही स्वीकारना अच्छा है। जब तक मार्ग पर लगा नहीं। मार्ग पर लग जाए, तो फिर और दिखना प्रारंभ हो जाता है। उस तत्त्व को पकड़िये।
माँ ! हाथ की रोटी दे दो। हाथ की भी रोटी होती है? हाँ ! जिसे बेलन से नहीं बेला जाता, हाथ से ही बनाया जाता है, वह हाथ की रोटी है। इस हाथ की रोटी में बड़ा गहरा तत्त्व है। वह रोटी किसकी थी? गेहूँ की, बाजरा की? ज्वार की, देखो, रूढ़ि कैसी है ? आटे की रोटी हो, तो आप गेहूँ की रोटी समझ लेते हो। हे माँ! जब आप बेलन से रोटी बनाती हो, तो उसमें पानी नहीं लगाती, उसमें सूखा आटा लगाकर बेलती हैं। सुनते जाना, नहीं तो सोचो, कि महाराज क्या बता रहे हैं। हे ज्ञानी ! आप रोटी जानते हो, इसलिए रोटी का दृष्टान्त दे रहे है; पर आप जिसे नहीं जानते, उसे बताने के लिए बेलन से रोटी बना रहे है! तो आटा लगाते हो। हाथ से बनायेंगे, तो पानी लगाते हो । अब बताओ कि रोटी बनाने के लिए पानी उपादेय है, कि आटा?
भूतार्थ क्या है, अभूतार्थ क्या है ? पानी को फेंक मत देना, आटे को फेक मत देना। निश्चय भूतार्थ है, कि व्यवहार भूतार्थ है। आटा लगा-लगाकर बेल रहे थे, तब आटा भूतार्थ था। इधर पानी लगाकर हाथ से बना रहे थे, तब पानी भूतार्थ था। पानी और आटे का काम समान था, कि नहीं, यह निर्णय करो। ध्यान दो, एक ही रोग में विपरीत औषधियाँ भी काम करती हैं। पानी और आटे दोनों से रोटी बनती है। गहरी बात है, सोचना पड़ेगा। पुस्तकों से पुस्तकें नहीं लिखी जातीं, मस्तिष्क से लिखी जाती हैं। जो पानी से रोटी बन रही थी, वही आटे से बन रही है। दोनों का काम क्षुधा का निवारण है।
जब रोटी सिक जाती है, तो न पानी उपयोगी, न आटा उपयोगी। फिर तो रोटी ही उपयोगी है। निश्चय यदि पानी है तो व्यवहार आटा है, व्यवहार यदि पानी है तो निश्चय आटा है। दोनों से बनती है रोटी। रोटी बनने के बाद भूतार्थ है, आटा-पानी दोनों हेय हैं। रोटी भी भूतार्थ नहीं बची। जब पेट भर जाता है, तो रोटी भी गई। जब प्रातःकाल होता है तो रोटी का क्या होता है ?
बस, ज्ञानियो ! संयम का पालन उपादेय है, भूतार्थ है । संयम का पालन भी अभूतार्थ है, संयम स्वभाव जिसके लिए कर रहे थे, जब स्वभाव प्राप्त हो जाता है तो सिद्ध भगवान संयमी है; कि असंयमी हैं ? अब धवला की भाषा बोलो, णो संयम, णो असंयम । असंयम कहोगे तो भगवान् कैसे? सामान्य संसारी। संयमी कहोगे तो मुनिराज हैं। जबकि वे मुनिराज भी नहीं हैं और सामान्य संसारी भी नहीं हैं, वे तो सिद्ध भगवान है । णो संयमी, णो असंयमी ये 'धवला की भाषा है, षट्खण्डागम की भाषा है ये मार्गणा स्थान, गुणस्थान, ये जीवसमास, ये सब संसारी में ही घटित करना । संसारातीत में न मार्गणा, न अमार्गणा।
द्रव्यश्रुत इतना गहरा है । भावश्रुत की गहराइयाँ समुद्र में मत खोजना, भीतर खोजना |आम को मुख से खाने में अच्छा लगता है, उसे देखकर ही आपका मन मुस्कराता है। और मुख में जैसे ही रखता है, फिर उसको दिखाकर खाते हो। पर जो आम की रसानभति है. उसे आप कह नहीं पाते। व्यवहा
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