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समय देशना - हिन्दी
२७१ से सुन रहे हो न, परन्तु वेदन कहाँ हो रहा है ? जितना सुनते हो, उतना ही अन्दर से शान्त हो जाते हो। करणानुयोग की एक बहुत बड़ी सिद्धि हो गई।
इन्द्रियाँ भले पाँच है । पर पाँचों इन्द्रियाँ एकसाथ काम नहीं करती हैं । एक समय में एक ही काम करती है। आप तन्मय होकर सुनते हो तो, एक ही इन्द्रिय काम करती है। आप तन्मयता से देखते हो तो, सुनाई नहीं पड़ता है। बस, जो लोग यह कहते हैं कि सामायिक में मन चला गया, ध्रुव सत्य है, सामायिक में बैठे नहीं थे। सामायिक में बैठ गये होते, तो मन कैसे जा सकता था? शरीर को बैठा लिया था, परन्तु आप नहीं बैठे थे। आप बैठ गये होते, तो मन कहीं जा ही नहीं सकता था। यथार्थ मानना, चिन्तन में कमी आ गई है, और चिन्तन होना चाहिए। कैसा ? चिन्ता जैसा। जैसे चिन्ता में मन कहीं नहीं जाता, ऐसा चिन्तन होना चाहिए। आपको एक करोड़ का घाटा लग जाये, उस समय हलुआ, पुड़ी, मलाई रखी है, पर मस्तिष्क पैसे में है। ऐसा राग आत्मा से हो जाता तो कल्याण हो जाता। धिक्कार हो उसे, जिसने करोड़ रूपये की कीमत को महान समझा, और आत्मा को महान नहीं समझा। आपको जरा-सी कोई गाली दे दे, तो पूजन करते में वही याद आती है। ओ हो, कितनी गहरी सुनी है गाली आपने। धन्य है। अरहंत की आराधना करते वर्षों बीत गये, वह पूजन की पंक्ति भूल रहा है, पर गाली नहीं भूल रहा है। समयसार कह रहा है कि शुद्ध तनाव चाहिए। शुद्ध गाली चाहिए, गाली मत देने लगना । मतलब शुद्ध चिंतन, शुद्ध जिनवाणी चाहिए है । उतनी प्रीतिपूर्वक सुनना, गाली की तरह । पर की चर्चा करने में कमर नहीं दुखती, पर सामायिक करने को कहें, जो कि कल्याण का मार्ग तो लेट के कर लूँगा है। तूने बैठे-बैठे गप्पों में वीर्यान्तराय कर्म का नाश कर लिया, जब सामायिक का समय आया तो कमर दर्द करने लगी।
__ आँखें बन्द रखा करो । जैसे कि जब पानी कम होता है, तो पानी को कैसे उपयोग करते हो ? आवश्यकता हुई, उतनी टोंटी खोल कर ले लेते हो और बन्द कर देते हो।
हे ज्ञानी ! एक टोंटी आँखों, कानों, मुँह आदि में भी लगवा लो। जितनी जरूरत पड़ी, उतनी खोलना, शेष बन्द । बन्ध को बन्द करना चाहते हो तो बन्द करना शुरू कर दो।
पंचमकाल में विभावों को बन्द करने का कोई माध्यम है तो, स्वाध्याय है। इससे गहरा कोई उपाय दिखता नहीं है । ध्यान का कोई लम्बा काल है तो, स्वाध्याय है। सतत् अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग । आज बच सकते हैं तो, स्वाध्याय से, और कोई बचानेवाला नहीं है। कभी स्वाध्याय करो, तो हृदय में बैठकर ही बोलना कण्ठ से बिल्कुल नहीं बोलना । कण्ठ को माध्यम बनाना, शब्द के उद्घाटन का स्थान कण्ठ रहे, पर प्रगटीकरण तो हृदय से ही होगा। हृदय से बोलोगे, तो हृदय में ही जायेगा । और तत्त्व की देशना के काल में, पर पुरुष को मत लाओ। तत्त्व की देशना में तत्त्व ही को विराजमान करना । हम परपुरुष का महत्त्व स्थापित नहीं करना चाहते हैं। हमें तो जिनवाणी का महत्त्व प्रगट करना है, और पर पुरुष को रखने से कौन हमारी आत्मा का कल्याण होता है ? आत्मतत्त्व ही उपादेय है। आवश्यकता नहीं पड़ती हैं परपुरुष को बैठाने की। परपुरुष को वे बैठायें, जिनके कण्ठ में सरस्वती न रहे । पर की आलोचना, पर की कथाएँ वे सुनायें, जिनके मस्तिष्क में चिंतन की कमी हो और हृदय में ज्ञान का क्षयोपशम कम हो । परन्तु जब तुम्हारा हृदय तत्त्वज्ञान से भर जाता है, तो पर को लाने के लिए समय ही नहीं मिलता, क्योंकि आगम इतना अगाध है।
आचार्य जयसेन स्वामी आसन्न भव्य की चर्चा कर रहे हैं। भूतार्थ निश्चयनय (शुद्धनय) से अभिगत है, निर्णित है, जाना है, ऐसा जानते हुए, जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पाप और पुण्य,
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