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समय देशना - हिन्दी चेहरा जब भद्र दिखता है, तब गाय की कषाय मन्द होती है। जब कोई ऐसा लगे कि भद्र दिख रहा है, तो उसके मस्तिष्क में जिनवाणी है। जिनवाणी का अर्थ द्रव्यश्रुत को ग्रहण नहीं करना । कषाय की मन्दता भद्रता ही जिनवाणी है। एक द्रव्यश्रुत कह रहा है, एक भावश्रुतरूप हो रहा है। विश्वास रखना, मंदता तभी आयेगी, जब कषाय में निर्मलता होगी। भद्रता जो है न, वह बिना तत्त्वचिंतन के नहीं है। श्रुत मिथ्यादृष्टि के साम्यभाव को प्रशम भाव नहीं कहता । सम्यग्दृष्टि का प्रशमभाव ही साम्यभाव है। जब तक अनंतानुबंधी में कोई भी बैठा होगा, तब तक प्रशमभाव नहीं है। चार में से एक भी होगा, तब भी नहीं है। प्रशमभाव तो वहीं होगा, जहाँ सम्यक् का उद्योतन हो रहा होगा। वही प्रशमभाव समझना ।
उद्योतन शब्द बार-बार जिनागम में आता है। मूलाचार में वट्टकेर स्वामी ने उद्योत के दो भेद किये, द्रव्य उद्योत, भाव उद्योत । मणि आदि का जो प्रकाश है, यह द्रव्य उद्योत है। इसका खण्डन होता है, खण्डित होता है, अखण्ड नहीं है, और निश्चित प्रदेशी है। इस बल्ब की सीमा है, अपनी सीमा तक ही प्रकाश दे पाता है । जो पाँच सम्यक्ज्ञान हैं, इनका उद्योतन अखण्डित है, ये खण्डित नहीं होते हैं । केवलज्ञान लोकालोक को प्रकाशित करता है। प्रकाशित का मतलब कौन-सी ज्योति ग्रहण करना? चियोति चैतन्य प्रकाश । वही तेरा ज्ञायकभाव है, वही तेरा उद्योतन भाव है। आजकल लोग क्या करते हैं, कि ध्यान में बैठते हैं चियोति स्वरूपोऽहम और किरणें फूट रही हैं। देखिये, किरणें फूट रही हैं। धन्य हो, एक अशरीरी आत्मा से तुमने पुद्गल की किरणें फुटवा दीं । समयसार को समझना पड़ेगा। जो किरणें फोटो में छप रही है, वे वह किरणें नहीं है। यहाँ कौन-सी किरणें ग्रहण करना ? जो परमज्योति ज्ञान के विकल्प हैं, वही किरणें हैं । कल्लोलमाला, खल्लोलमाला से रहित, सहज तरंगे हैं। वे कैसी कल्लोलमाला हैं ? जब सरोवर में पानी भरा हो, और पूर्णिमा का समय हो, बहता है नहीं, लहरें चल रही हैं, धार नहीं है । लहरें और धाराएँ, इनमें अन्तर है लहरें उठती हैं, धाराएँ बहती हैं। स्वानुभूति की लहरें उठती हैं, जो अन्दर ही अन्दर होती हैं। पर, राग की विषयों की धाराएँ बहती हैं। नदी ऊपर से गिरती है, नीचे जाकर समुद्र में मिलती है । परन्तु जो अन्दर का स्त्रोत होता है, कुएँ में नीचे से उठता है, ऊपर को जाता है । स्वात्मानुभूति नदी का नीर नहीं है, स्वात्मानुभूति तो पाताल तोड़ कुएँ का स्त्रोत है। अन्दर से फूटता है, अपने आपमें भरा रहता है । कुएँ के भरने के लिए पानी नहीं लाना पड़ता । बस, इतना ही कहना था मुझे । आत्मा की अनुभूति का प्रयोग / प्रेक्टिकल अभी करा देता हूँ। यह अगूठा है, इस अगूंठे में डॉक्टर ने सुई लगा दी तो सत्य बताना आपका हलन चलन कितना होगा ? पूरे प्रदेश में कम्पन्न होगा कि नहीं ? सुई तो अँगूठे में लगी थी न, कम्पन पूरे शरीर में क्यों हुआ ? एक जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय का विषय भोगता है । अंग विशेष से स्पर्श किया, पर रोमांच सर्वांग में होता है। ठण्डी बहुत थी, ठण्डी में उकाली पी ली जाती है पेट में परन्तु पूरे शरीर में गर्मी महसूस करता है। ऐसे ही स्वात्मानुभूति की अनुभूति सर्वांग में व्याप्त होती है। अंग-अंग में नहीं, आत्मा के प्रदेश-प्रदेश पर होती है ।
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परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं ।
तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो ||८|| पवयणसारो ॥
जिस काल में जैसा उपयोग होता है, उपयोग की परणति वैसी ही होती है। इसलिए हमारी आत्मा अंश - अंश नहीं है, सर्वांश रूप है । खण्ड-खण्ड नहीं है, हमारी आत्मा अखण्ड धौव्य है। अनुभूति अखण्ड है, वेदन अखण्ड है । बोलते मुख से हो, सुनते कान से हो, अनुभूति कहाँ से लेते हो ? बस, गंभीर विषय कान
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