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समय देशना - हिन्दी
१३ की प्राप्ति हुई, समाचार आया कि दूकान में आग लग गई। आप बताओ क्या करोगे? समाचार देने वाला समाचार तो दे सकता है, लेकिन यदि तू सुखी-दुःखी नहीं होना चाहता है तो दोनों ही समाचार तुझे सुखीदुःखी नहीं कर सकते हैं। जिनका जलना धर्म था, वो जल गये; जिनका जन्म लेना ही धर्म था, उसने जन्म ले लिया । नया क्या हुआ ? चाहे आप हर्षित हो या न हो, पर जीव जो अपनी अबाधा को लेकर आया था, उसने गर्भ की आबाधा को पूर्ण किया है, तो जन्म तो लेगा ही। तुम क्यों परेशान होते हो? उसको तो जन्म लेना ही है। ये भी ध्रुव सत्य है कि जन्म के साथ मरण को भी प्राप्त हो रहा था। आप क्या सुख-दुःख की बात कर रहे हो, अचल अवस्था पर ध्यान दो।
हे ज्ञानी ! समयसार को यहाँ ही सुनना-समझना नहीं है, घर में सुनना-समझना है, समयसार को घर में लगाना है। जिसका जन्म होना था, निश्चित था, जिसकी मृत्यु होना है, वह आयुकर्म पर निश्चित है । आप हर्ष-विषाद ही कर पायेंगे, न किसी का जन्म रोक पाओगे, न मृत्यु रोक पाओगे । रोक सकते हो तो हर्ष-विषाद को रोकना । तेरे हाथ का विषय है। लेकिन जन्म किसी का या मरण किसी का होना तेरे हाथ में नहीं है। इसलिए संसारी जीव त्रिवर्ग को प्राप्त किये हैं, और मुक्त परमात्मा अपवर्ग को प्राप्त किये हैं ।अचल, अचलत्वमुपगता" अचलता को प्राप्त है, यानि चार गतियों में भ्रमण समाप्त हो चुका है । वे अद्वितीय स्वरूप में लीन हैं। "अखिलमुपमान विलक्षणत्वात'' सम्पूर्ण उपमा से विलक्षित, अब यहाँ पर कोई उपमा नहीं है। जब-तक उपमा है, तब-तक पर सापेक्षता का भाव है, उपमाओं का अभाव हो गया, क्योंकि गतियों का अभाव है। गतियाँ जो होती हैं, पर निमित्तक ही होती हैं। ध्यान दो, गतियाँ जो होंगी, वे पर निमित्तक होंगी। जब परनिमित्तक ही होंगी, तो वो मेरी आत्मा का धर्म नहीं होगा। जो-जो पर निमित्तक है, वह सब मेरे आत्मधर्म से परे है। जो परनिमित्त होते हैं, वे निजधर्म होते नहीं। अहो ! मैंने पर निमित्तों को ही निहारा, इसलिए निजधर्म को भजा नहीं। जो निज धर्म को भज गया है, वह परनिमित्तों से हट गया है। ये समयसार का ज्ञान भी मेरा निज धर्म नहीं है, क्योंकि "श्रुतमनिन्द्रियस्य', ये श्रुतज्ञान मन का आलम्बन ले रहा है और मन के आलम्बन से श्रुत हो रहा है। ये क्षयोपशम के साथ चल रहा है। क्षयोपशम कर्म का साथ ले रहा है । ज्ञानी ! समयसार जो स्वरूप है, वह क्षयोपशम भाव से रहित है। समयसार क्षायिक स्वभाव भी नहीं है। समयसार यदि क्षायिक भाव है, तो हमें किसी का क्षय करना पड़ेगा, पर निमित्तिक है । क्षायिक भाव भी परनिमित्तक है, क्योंकि पर का क्षय करेंगे तब क्षायिक भाव प्रकट होगा । मैं क्षायिकभावस्वभावी भी नहीं हूँ। मैं क्षयोपशम भावस्वभावी भी नहीं हूँ। मैं औदयिक भाव स्वभावी नहीं हूँ। मैं तो परम पारिणामिकभाव स्वभावी है। हे ज्ञानी! क्षायिक भाव मेरा धर्म नहीं क्योंकि पराधीन है। ये पराधीन क्यों है? कर्म के क्षय हये बिना क्षायिक भाव होता नहीं; परन्तु पारिणामिक भाव किसी द्रव्य का आलम्बन लेता नहीं, इसलिए पारिणामिक भाव मेरा स्वभाव है । क्षायिक भाव प्रकट होता है, इसलिए स्वभाव नहीं है । परन्तु पारिणामिक भाव सदा होता है, इसलिए स्वभाव है। वहीं परम समयसारभूत परिणत क्षायिक भाव स्वभाव नहीं है। निजस्वभाव ही परम पारिणामिक स्वभाव है । परमपारिणामिक स्वभाव में लीन हुई आत्मा नियम से क्षायिकभाव में लीन होगी। परन्तु ध्यान देना, मैं परमशुद्ध निश्चयनय से बोल रहा हूँ। व्यवहारनय से आप क्षायोपशमिक भी हो, क्षायिक भी हो, औदयिक भी हो, पारिणामिक भी हो। लेकिन परम शुद्ध निश्चयनय से आत्मा का जो ध्रुव स्वभाव है, वह परम पारिणामिक भाव है। मैं विशुद्धि स्थान भी नहीं हूँ, मैं संक्लेश स्थान भी नहीं हूँ, क्योंकि विशुद्धि स्थान उसमें हो, जिसमें अशुद्धि हो । मैं तो त्रैकालिक ध्रुव शुद्ध हूँ, तो मेरे में विशुद्धि कहाँ ? जो
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