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समय देशना - हिन्दी
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सापेक्षी है । विषय पर-सापेक्षी नहीं है, पर-निरपेक्षी है और पर-निरपेक्ष भाव ही शुद्ध समयसार है। इसलिए समयसार ग्रन्थ को कहूँगा । जिसकी तात्पर्यवृत्ति संज्ञा है, उसे मैं आचार्य जयसेन स्वामी कहूँगा ।
अमृतचन्द्र स्वामी की टीका सूक्ष्म प्रदानी है, पर जयसेन स्वामी की टीका विस्तार बुद्धि वालों के लिए है। श्रेष्ठ वक्ता वही होता है, जो मैं क्या - क्या कहूँगा पहले ही कह देना है, और बाद में फिर दोहरा देना है । न्याय की भाषा में उपनय निगमन ।
निगमन, पाँच
हेतु को पुनः दोहराना, हेतुपूर्वक कहना । और प्रतिज्ञा, हेतु उपनय, उदाहरण, प्रकार से बालकों को समझाया जाता है, पर ज्ञानियों का एक से काम चल जाता है। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
आत्मा अनुपम है, इस शब्द के प्रयोग से आत्मा की ध्रुव सत्ता का वर्णन किया। मंगलाचरण में ही 'अनुपम' शब्द कहकर, हे ज्ञानी ! सम्पूर्ण विवादों से दूर कर दिया। धर्म, अर्थ, काम ये तीन पुरुषार्थ / त्रिवर्ग /तीन वर्ग से जो परे है, उसका नाम है अपवर्ग / मोक्ष | भगवान् अपवर्गस्वरूपी हैं, वर्गस्वरूपी नहीं हैं । 'अनुपम' शब्द कह रहा है कि जो त्रिवर्ग से ही शून्य हो चुके हैं, वे अपवर्ग में लीन हैं, ऐसे भगवान् सिद्ध परमेश्वर हैं ।
कल आपने अनेकान्त मूर्ति की वंदना की, और यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी की भावना को पढ़ा कि परपरिणति का हेतु मोह है। इस मोह का विनाश हो, और 'समयसार' ग्रन्थ का फल अगर कुछ प्राप्त होतो, शुद्धात्मतत्त्व की लीनता मुझे प्राप्त हो ।
"ध्रुवममलम्'' यहाँ तक हम समझ चुके हैं। ज्ञानी ! चार गतियों में जो गमन था, वह गमन कर्म की सत्ता को सूचित कर रहा था और अब चार गतियों के ग्रमन का अभाव हुआ है तो वह आत्मा अविचल हुई है, कर्मातीत हुई है । इसका मतलब है कि हम चलायमान हैं, सिद्ध भगवान् चलायमान नहीं हैं । जिस दिन कर्मातीत होगा, उस दिन आत्मा अचल होगा । वे सिद्ध परमेश्वर अचल हैं, क्योंकि पुद्गल कालकरण वाला है । जीव को चलानेवाला कर्म है। पुद्गल कालाधीन चलता है, जीव कर्माधीन चलता है । जहाँ कर्म की अधीनता का अभाव हो चुका है, ज्ञानी! आत्मा स्वाधीन अविचल है। वह अविचल भगवान् कैसा है ? जिसके चलने में पर के निमित्त का अभाव हो चुका है । निज क्रियावर्ती शक्ति के नियोग से, द्रव्य के सद्भाव से वे परमेश्वर जैसे-ही कर्मातीत दशा को प्राप्त होते हैं, वे सिद्धालय में जाकर विराजमान हो जाते हैं । अब कब आयेंगे ? लोक में कहा जाता है कि 'जब लोक में धर्म की हानि होने लगती है, असुर बढ़ने लगते हैं, अभिमानी हो जाते हैं, तो पुनः परमेश्वर वापस आ जाते हैं।' हे ज्ञानी ! यह वह सिद्धान्त नहीं है। हमारे जो परमेश्वर हैं, वे कैसे है ? "दग्ध बीजवत" । जैसे जला बीज पुनः अंकुरित नहीं होता है, ऐसे कर्म भी जिनके नष्ट हो चुके हैं उनके भवांकुर उत्पन्न नहीं होते हैं ।
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जब हमारा परमेश्वर जगत् के पर-द्रव्य का कर्ता नहीं है, तो तू परद्रव्य का कर्त्ता कैसा है ? मेरा सुख, मेरा दुःख मेरे में ही है। मेरे सुख - दुःख का तू किंचित भी भोक्ता नहीं है, मेरे सुख - दुःख का तू किंचित भी कर्त्ता नहीं है। ध्यान दीजिए इच्छाओं का समाधान हो सकता है, फिर भी आप मेरे सुख-दुःख के कर्त्ता नहीं हैं। इसलिए चाहे शुभ समाचार हो, चाहे अशुभ समाचार हो, समाचार तो दिये जा सकते हैं, पर सुख-दुःख नहीं दिया जा सकता। हे ज्ञानी ! उस गहरे शब्द को पकड़ो। समाचार आया कि तेरे घर में पुत्ररत्न
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