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________________ समय देशना - हिन्दी के लिए। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष तेरी इन्द्रियों का विषय है। और दोनों ही प्रत्यक्ष आत्मा ही के प्रत्यक्ष हैं। सुनो, यही कारण है, कि जो प्रत्यक्ष-प्रमाण से आत्मा को समझना समझते है, वह भी प्रत्यक्ष है। जो प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा को नहीं समझ पाता है, उसको अभी आत्मा दिखती ही नहीं है। आत्मा को कहे या न कहे, प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा जानी जाती है। ज्ञानी ! श्रुतज्ञान किसका विषय है ? आत्मा का । श्रुतज्ञान किसमें होता है ? आत्मा में। तो जो जिसमें है, उसको नहीं जानता है क्या? हम अपने ज्ञान को बाहर में ले जा रहे हैं, अपने ज्ञान को अन्दर में नहीं ले जा रहे हैं। ___ हे ज्ञानी ! एक बात यथार्थ बता दूँ, एक बात का निराकरण कर लो। कुछ जीवों ने समझ लिया है कि कपड़े पहने-पहने मोक्ष हो जायेगा और कोई समझता है कि कपड़े उतारे-उतारे मोक्ष हो जायेगा। दोनों भ्रम में हैं। वे ज्ञानी जीव कहने में डरते हैं, पर मुझे डर नहीं लगता ....! वीतरागं जिनं नत्वा, ज्ञानानन्दैक-सम्पदम् । वक्ष्ये समयसारस्य वृत्तिं तात्पर्यसंज्ञिकाम् ।।१।। ता.वृ.॥ यहाँ पर आचार्य जयसेन स्वामी ग्रन्थ के प्रारंभ की भूमिका बना रहे हैं। यहाँ आचार्यश्री ने व्यक्तिविशेष को नमस्कार नहीं किया। 'धवला' जी की आठवीं पुस्तक में, मंगलाचरण में 'णमो लाए सव्वसाहूणं' सबसे पहले साधुपरमेष्ठी को नमस्कार किया है । 'षट्खण्डागम' की आठवीं पुस्तक में, जिसमें तीर्थंकर प्रकृति के बंधके सोलहकारण भावों का विस्तृत वर्णन किया है, आचार्य-भगवान् वीरसेन स्वामी कह रहे हैं कि हमने भूलकर नहीं किया साधु परमेष्ठी को नमस्कार । जानकर नमस्कार किया है। क्योंकि अरहंत तभी बनते हैं, जब साधु पहले बनते हैं। अरहंत के मार्ग की प्राप्ति साधु बने बिना नहीं होती है, इसलिए पहले साधु को नमस्कार किया है। अन्य बोले- आचार्य और उपाध्याय को क्यों नहीं किया ? उत्तर यह है कि ये परमेष्ठी तो हैं, पर साघु नहीं हैं। वे तो पद हैं। साधु तो साधु है, और वे दो भी साधु हैं। आचार्य-भगवान् वीरसेन स्वामी लिख रहे हैं - हमने साधु परमेष्ठी को नमस्कार किया है, इसमें कोई क्रम भंग नहीं किया, हमने पश्चादानुपूर्वी का प्रयोग किया है । "णमो लोए सव्वसाहुणं' ।'समाधि शतक' में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सिद्धों को नमस्कार किया है - हे भगवन् ! मुझे सिद्ध बनना है, इसलिए सिद्धों को नमस्कार किया है। यद्यपि सापेक्षदृष्टि से २४ भगवानों को नमस्कार किया है। वीतरागता ही है सम्पदा जिसकी, ऐसे जिनं नत्वा । वे कषायानंद, विषयानंद, रागानंद में लीन नहीं हैं, वे ज्ञानानंद में लीन हैं । ज्ञानानंद कब होगा ? जब विषयानंद का अभाव होगा। जब तक विषयानंद है, तब तक ज्ञानानंद नहीं। हे मुमुक्षु - जिसके नयनों में मृगनयनी निवास कर रही है, उसकी आत्मा में ब्रह्म का वास कैसा? जिसके अन्दर ब्रह्म का वास है, उसके नयनों में मृगनयनी कैसी ? एक म्यान में दो तलवार कैसे ? ज्ञानियो ! समयसार सुनना, पर ध्यान रखना अपने आप में लगाकर नहीं बैठ जाना। ये तो आप ज्ञान प्राप्त कर रहे हो । लगाना हो तो योगी बनना । आज क्लास इसलिए प्रारंभ करना पड़ रही है, कि तत्त्व का विपर्यास देखने को बहुत मिल रहा है। छतरपुर में जब समयसार कमरे में पढ़ता था पूरे संघ के साथ, तो ये परिणाम निकला कि 'पुरुषार्थ सिद्धिउपाय' की सामूहिक क्लास में लोग कम होने लगे, और समयसार के स्वाध्याय को कमरे से बाहर करना पड़ा। हमने कहा- ऐसा क्यों करते हो, ये तुम्हारा विषय नहीं है ? बोले- हो या न हो, श्रावक की बाते तो कहीं भी सुन लूँगा, पर आत्मा होती कैसी है, ये समयसार सुनने से आयेगा । तो समयसार की भाषा पर-सापेक्षी नहीं है । स्व Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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