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समय देशना - हिन्दी
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हे योगीश्वर ! समय को समझना, समय के द्वारा समझना, समय के लिए समझना, समय में समझना, समय पर समझना । तब समझ में आयेगा समयसार । और किसने समझाया, किसके लिए समझाया ? समय को समझाया, समय के द्वारा समझाया, समय के लिए समझाया, समय से ही समझाया, समय में ही समझाया। यही तो समयसार है।
संयोगतो दुःखमनेक भेदं यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी ।
ततस्त्रिधासौ परिवर्जनीयो, यियासुना निवृर्तिमात्मनीनाम् ॥28 भा. द्वा.II ( सामायिक पाठ) मुमुक्षु ! समय को तू न समझा, पर षष्ठी विभक्ति में चला गया । हे ज्ञानी ! ये सम्बन्ध ही समय को नष्ट कर रहे हैं । षष्ठी विभक्ति पर सापेक्षी है। ज्ञानी ! षष्ठी के अभाव में शेष स्वसापेक्षी व परसापेक्षी उभयरूप है । ये षट् कारक भेदरूप भी होते हैं, अभेदरूप भी होते हैं। पर ध्रुव सत्य यह है कि इस ग्रन्थ को समझने के लिए कारक भी समझ में आना चाहिये ।
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मनीषियो ! इस ग्रन्थ में प्रमेय, प्रमाता, प्रमिति का विषय है । दर्शनशास्त्र जहाँ बाहर प्रमेय खोजता है, अध्यात्मशास्त्र वहाँ निज में ही प्रमेय, प्रमाता, प्रमिति खोजता है। मैं ही प्रमाता हूँ, इस विषय को मात्र जिनशासन ही कहने में समर्थ है। बस, ध्यान रखना, कहीं जाने की जरूरत नहीं है। मैं तो ये जानता हूँ आचार्य - भगवान् कुन्द - कुन्ददेव ! कि आपने जो परोस दिया है, वह हम कितना खा - पचा पाते हैं। ये भिन्न विषय है, पर देखने से लगता है कि आपने क्या-क्या नहीं लिखा है। जगत के लोगों ने बाहरी ज्ञेयो को जाने का बहुत पुरुषार्थ किया है, और कर रहे हैं; लेकिन जगत के लोगों ने अन्दर के ज्ञेय को जानने का किंचित भी पुरुषार्थ नहीं किया, न कर रहे हैं। यानि कि जाना, पर जाननहार को नहीं जाना । कितनी बड़ी भूल है । प्रमा, प्रमाता, प्रमेय, प्रमिति, कर्त्ता, कर्म, करण, क्रिया । इन चार के अभाव में काम बनता ही नहीं । यानी विश्व में कोई विशिष्ट सिद्धान्त 'कर्त्ता और क्रिया' को समझ ले, तो कोई विवाद नहीं आयेगा । कर्ता को देखकर क्रिया आती है, कि क्रिया को देखकर कर्त्ता चलता है ? हे ज्ञानी ! परिणति क्रिया है, परिणामी कर्त्ता है, परिणमन कर्म है। आपको विश्वास हो या न हो, पर मुझे तो भवितव्यता पर पूरा विश्वास है। भोपाल में लोग कहते-कहते थक गये, पर भोपाल में समयसार नहीं हो पाया। यहाँ जबलपुर के लोगों की भवितव्यता थी, तो यहाँ हुआ । 'यः क्रियां करोति सः कर्त्ता ।', जो क्रिया करता है, वो ही कर्त्ता, है न कि ईश्वर कर्त्ता । रागादि भाव किसने किया ? मैंने किया, तो मैं कर्त्ता । किसको किया ? मेरे को किया मैं कर्म । किससे किया ? मेरे से किया तो मैं करण । तो मैं किसमें कर रहा हूँ? मेरे में कर रहा हूँ। मैं अधिकरण । किसके लिये कर रहा हूँ ? मेरे लिये कर रहा हूँ, मैं सम्प्रदान। किससे कर रहा हूँ ? मैं से भिन्न होकर, कि मैं से अभिन्न होकर ? अपने निज चैतन्य भाव से अभिन्न होगा एवं परभाव से भिन्न होगा मैं से ही तो कर रहा हूँ। मैं अपादान | 'आलाप पद्धति' में विभाव को भी आत्मा का स्वभाव कहा है। विभाव को स्वभाव कहा ही है, इसलिए कहा
है ।
अब अपने को परिणति को समझना है, तो परिणामी को समझना होगा और परिणामी को समझना है, तो परिणति को समझना होगा। परिणामी समझ में आये या न आये, परिणति समझ में आती है। अरे ज्ञानी ! जब परिणति समझ में आ रही है, धुँआ समझ में आ रहा है, तो समझ लेना चाहिए कि अग्नि है । अनुमान नहीं, प्रत्यक्ष में बताता हूँ । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में कहूँ कि परमार्थ प्रत्यक्ष में कहूँ ? सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में देखा जावे तब भी समझ में आता है । परमार्थ प्रत्यक्ष स्याद्वाद का विषय है, शुद्ध ज्ञान के जानने
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