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________________ समय देशना - हिन्दी १४ विशुद्धि से भी परे है, उसका नाम शुद्धस्वभाव है। जब तक विशुद्ध है, तब तक शुद्ध नहीं है। बस, ये तो कारण समयसार है विशुद्ध, कार्य समयसार है शुद्ध । मैं शुद्ध हूँ, विशुद्ध नहीं हूँ । 'विशुद्ध' पर्यायजन्य दशा है, 'शुद्ध' स्वभावजन्य अवस्था है । विशुद्ध परिणतियाँ होती हैं। परिणामी शुद्ध होता है । परिणतियाँ नष्ट होती हैं, परिणामी नष्ट नहीं होता है । परिणामी त्रैकालिक ध्रुव है । परिणतियाँ में उत्पाद-व्यय-धौव्य अशुद्ध रूप होता है । परन्तु परिणति में उत्पाद-व्यय शुद्ध हो रहा है । अब ध्यान दो- ये समयसार की भाषा है, यह षट्हानि - वृद्धि रूप परिणतियाँ हैं । वे परिणतियाँ ही हैं, जो हो रही हैं, पर न कोई कर नहीं रहा है। जब कोई कर नहीं रहा है, तो तू कर्त्ता क्यों हो रहा है ? मुमुक्षु ! अपने अखण्ड ध्रुव स्वभाव में लीन हो जाओ, अखण्ड शुद्ध स्वभाव को प्राप्त मत करो । यदि प्राप्त करोगे, तो उसे उत्पन्न कराना पड़ेगा। वो तो है ही। लीन हो जाओ, उत्पन्न नहीं कराओ। जो उत्पन्न होता है, वो सही नहीं होता है। जो उत्पन्न होता है, वह पर्याय होती है। पर परमस्वभाव उत्पन्न नहीं होता, । परम स्वभाव तो होता है । इसलिए आप तो परभाव से अलग हो जाओ । परभाव से अलग हो जायेगा, तो स्वभाव में लीन हो ही जायेगा। मैं नहीं चाहता हूँ, कि तुम विषय- कषाय को छोड़ो। अरे ! विषयकषाय की विडम्बना में पड़ जायेगा, तो स्वभाव से दूर हट जायेगा। तू स्वभाव में लीन हो जा, तो विषयकषाय स्वमेव हट जायेंगे । ज्ञानी ! यही तो अन्दर का पुरुषार्थ है, इसलिए कह रहे हैं। कैसे ? परमेश्वर "अचलमुपगता", जिनकी सम्पूर्ण उपमायें निकल चुकी हैं। अद्भुत महत्त्व है अशरीरी भगवान् आत्मा का। ऐसे अनुपम त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम ) शून्य हो गया, ऐसा अशरीरी - आत्मा है। ध्यान देना, यहाँ जो वर्णन है, वह शुद्धात्म का परिणमन कैसा है ? सीधा कहाँ जा रहे हैं आप ? सिद्धालय में । अरहंतों से भी नहीं मिल रहे । सीधा सिद्धों के स्वरूप का वर्णन है । क्यों समझना है यह विषय ? हे योगीश्वर ! अरहंत बनने के लिए निर्ग्रन्थ नहीं बनना पड़ता है। अरहंत हो जाते हैं । सिद्ध बनने के लिए निर्ग्रन्थ बने हैं न आप । इसलिए ध्यान अरिहंतों में नहीं जाओ, निर्ग्रन्थों में नहीं ले जाओ, अपना ध्यान सिद्धों में ले जाओ। जिसे तू चाहता है, प्राप्त करना चाहता है, उसे तू समझ कि है कैसा ? जिसकी प्राप्ति के लिए तूने साधना की है, उस साध्य को तो एक बार जान लो । जब तुझे साध्य का ही ज्ञान नहीं है साधना किसके लिए करने बैठ गया है ? एक प्रश्न कीजिए, मन में पहले कन्या का बोध होता है, कि पहले शादी का नियोग होता है ? बोलो, जिस अज्ञानी को कन्या का बोध ही नहीं है, तो शादी का नियोग किसके लिए हो रहा है? कितनी बड़ी बिडम्बना है, अशरीर सिद्धों के स्वरूप को जाने नहीं और मुनि बनकर बैठ गये । बने किसके लिए थे ? शादी किसके लिए ? ये मंडप किसके लिए बनाया ? किसी कन्या का बोध होना चाहिए था । I मुमुक्षु ! ये दीक्षा का मण्डप किसके लिए जब तुझे मुक्तिकन्या का बोध नहीं है ? ये 'समयसार ' ग्रन्थ जिसे आप विपरीतता में समझ बैठे हो, ऐसा नहीं है। ये मुक्तिकन्या का बोध करानेवाला ग्रन्थ है । जब तुझे बोध हो जाये, तो मण्डप में जाना, बरातियों के साथ चले जाना। लेकिन जब तक कन्या का बोध नहीं है तो, हे ज्ञानी! शादी किसके साथ होगी ? उस बोध को जानना है तो अब विश्वास करो । कन्या को लेने जाता है, तो विशेष सज-सँवर कर क्यों जाता है ? क्योंकि जिस कन्या को तू लेने जा रहा है, वैसी कन्या तेरे घर में नहीं है। तेरे घर में बहन हो सकती है। बहिन का जन्म तेरे घर में होता है, भाई भी तेरे घर में जन्म लेता है, पर तेरे घर में पत्नी का जन्म नहीं होता है। जिस कन्या को तू लेने जा रहा है, उस कन्या को विशिष्ट सम्मान के साथ पत्नी बनाने जा रहा है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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