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समय देशना - हिन्दी लेते रहे । जब एक स्वभाव का अर्थ ही नहीं किया, तब भी आप तन्मय होते थे, और आज चारों पद को समझना है। वह चारों पद अध्यात्म की गंभीरता से युक्त हैं। जो आत्मा का स्वभाव है, वो परभावों से अत्यन्त भिन्न है। मैं परभाव नहीं हूँ, मेरे भाव परभाव नहीं हैं। मैं भाव हूँ, भाव यानि पदार्थ, भाव यानि परिणाम । मैं पर पदार्थ से भिन्न हूँ, मैं चैतन्य हूँ, और पौद्गलिक पदार्थ जड़ हैं। मेरी आत्मा निज स्वतंत्र आत्मा है, मैं पर चैतन्य आत्मा से भिन्न हूँ, मेरी आत्मा मेरे पुत्र की नहीं है, मेरी आत्मा मेरी पत्नी की नहीं है, गुरु की नहीं है, शिष्य की नहीं है, मेरी आत्मा परभाव से भिन्न है, तो मेरी आत्मा में जो विभाव लाने वाले परिणाम हैं, उससे मेरी आत्मा भिन्न है। मेरी आत्मा पर के परिणामरूप परभाव से भी भिन्न है । हे ज्ञानी ! तू कितना मोही बन चुका है, जो स्त्री के विकारी भावों में उलझ कर अपने आपमें विकार करता है। समयसार लगाइये, कौन कहता है समयसार चरणानयोग से शन्य होता है? समयसार जिस दिन समझ में आ जायेगा. उस दिन घरघर में मंगलाचार होगा । ये अज्ञानी लोग हैं, जिन्होंने समयसार के नाम पर समाज को तोड़ दिया । ये समयसार नहीं है, यह तो विभावदशा है। ऐसे लोग है भाई-भाई से नहीं बोलते, पत्नि-पति की नहीं पटती, क्योंकि एक समयसार वाला है, तो एक व्यवहार वाला । तुम दोनों तो विवाद वाले हो, न समयसार वाले, न व्यवहार वाले हो। अभी आपने दसवाँ कलश पढ़ा नहीं है।
अहो श्रावको आपका पुत्र मित्रों में खेलने गया था, वहाँ आपस में संवाद हो गया, पुत्र भी परभाव था, मित्र का पुत्र भी परभाव था, दोनों के परिणाम भी परभाव थे, तेरे से भिन्न थे। जैसे तेरा पुत्र तेरे राग में तेरा है। वैसे ही मित्र का पुत्र मित्र का है। जैसे मित्र का पुत्र तेरा नहीं है, वैसे तेरा पुत्र भी तेरा नहीं है, यदि मित्र का पुत्र अशुभ कर बैठे, तो तुझे बन्ध होगा क्या? नहीं होगा? तो तेरा पुत्र भी अशुभ कर बैठे, तो भी कर्म बंध नहीं होगा। मित्र का पुत्र भगवान की पूजा करे, तो तुझे पुण्य मिलेगा क्या ? नहीं मिलेगा, उसी प्रकार तेरा पुत्र भगवान की पूजा करे, तो भी पुण्य बन्ध नहीं होगा। ऐसा समयसार समझ में आ जाये, तो विसंवाद समाप्त हो जाये । जिसके पीछे तू विभाव कर रहा है, उसका विभाव भी विभाव है, फिर तेरा ये स्वभाव कैसे है। आपने आधी पर्याय को पर के राग-द्वेष में रागी द्वेषी किया है। आपको मोह था, मुझे स्वीकार है। ऐसा कर लेते, माँ-पिता-पत्नी को अपना कहते रहते । पर तू उनके कलुषित भावों को अपना क्यों मान बैठा, और उनके कलुषित भावों की पुष्टि के पीछे भाई को भी छोड़ बैठा । तुमने क्या किया, जो मैं कह रहा हूँ, समझ में आ रहा है क्या ?
पिता का शरीर दाह से पीड़ित था। अहो, अशुभ आयु का बंधक करेगा भी क्या? छिपकली लड़ रही थी ऊपर, चंदन से पिता का दाह नहीं मिटा, गुलाब के नीर से शीतलता नहीं आ रही, और छिपकली के रक्त से शांति महसूस कर रहा है। धिक्कार हो इस पापी को ये कहाँ जाने वाला है। बेटे को बुलाकर कहता है, मेरी
औषधि मिल गई। रक्त से बाबड़ी भरा दो, बेटे धर्मात्मा थे, तत्त्व का निर्णय करना था। दोनों भाई ने विचार किया लगता है, पिता को खोटी आयु का बंध हो गया है, पिता तो चले ही जायेंगे, इनके राग में हम जीवों की हिंसा नहीं कर सकते। उसने बाबड़ी लाख से भरवा दी, वह बेटे के छल को समझ गया, तो मारने दौड़ा तो उसी में पैर फिसल गया और मरण को प्राप्त हुआ मरकर नरक में गया।
ध्यान दो, सबका सहयोग करना, पर ऐसा सहयोग मत करना, जिससे आपके चारित्र और धर्म का नाश हो, क्योंकि मैं विभाव के स्वभाव का भी अनुमोदक नहीं बनना चाहता, यह है समयसार । आत्मा का स्वभाव परभाव से भिन्न है । मैं अपने कर्म, नोकर्म रागादिक भाव से भिन्न हूँ, मेरे लिए रागादि कराने वाले
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