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________________ समय देशना - हिन्दी निमित्त भाव, भी मेरे से भिन्न है । मेरे में होने वाले अशुभ रागादि परिणाम, भी मेरे से भिन्न है । मति श्रुत आदि चर्चाएँ भी, कर्म सापेक्षता के कारण भेदरूप दिखती हैं। अखण्ड ज्ञान परिपूर्ण है । परिपूर्ण हूँ, मैं अपूर्व नहीं हूँ, और मेरी ध्रुव आत्मा आदि अंत से रहित है, विमुक्त है। मैं एक हूँ, मैं परिपूर्ण अखण्ड ज्ञानस्वभावी हूँ, मति श्रुत आदि ज्ञान ये पर्याय है, मैं अखण्ड चेतन हूँ मेरे में पर का सम्बन्ध नहीं है। इसे सुनते चलो इसमें शंका नहीं करना । जो ज्ञायक स्वभाव है, वही ज्ञान है, अभेद अनुपचार है, इसमें उपचार भी नहीं लगाना । ज्ञान व ज्ञेय में, ज्ञान व ज्ञायक में, भेद करना, ये भेद वृत्ति उपचार, अभेद में भेद वृत्ति उपचार और भेद में भेदवृत्ति उपचार। मैं जो है, वह आत्मा, मैं जो जान रहा हूँ भेद हो गया, ज्ञान से भेद हो गया। मैं जो जान रहा था वो भेद हो गया। जिसे जान रहा था वह भेद था, अभेद में भेद का उपचार कर दिया। घर छोड़कर अकेले बैठोगे तभी गुनगुना पाओगे, घर में यह नहीं गुनगुना पाओगे । एक छन्द में कितना विस्तार । हे योगीश्वर ! मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ। यह संकल्प छोड़ दो, आत्मा का स्वभाव परभाव से भिन्न है इस पर दृष्टि करो। एक मात्र शुद्ध दृष्टि से मैं उदित हूँ प्रकाशवान हूँ परम पारणामिक स्वभाव मेरी आत्मा है। मैं कैसा हूँ ? चित्त चैतन्य हूँ, अव्यक्त हूँ, स्वानुभव स्वरूपोऽहं । अखण्ड चैतन्य स्वरूप है । निज में लीन हो जाओ, यही समयसार है । ॥ भगवान् स्वामी की जय ॥ २६३ q a q आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार ग्रन्थ में कहा, जब तक बन्ध मानते रहोगे, तब तक स्वानुभूति और सत्यार्थ की अनुभूति नहीं ले पाओगे । हाथ के ऊपर पेन है, तो ऐसा आप कहेंगे, कि हाथ पेन से युक्त है। यह शब्दों की भाषा बराबर है । आँखें भी देख रही हैं, कि पेन हाथ पर ही है। पर पेन हाथ नहीं है । वजन भी लग रहा है, यह भी सत्य है। उससे कष्ट भी हो रहा है, फिर भी भार पर का ही है, मेरा नहीं है । सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्त-प्रदेशाः । आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में अनंतानंत कार्माण वर्गणाएँ कर्मरूप में अवस्थित हैं। फिर भी कर्म तो कर्म ही है, और आत्मा भी आत्मा ही है। यदि आपने बन्ध को स्वभाव मान लिया, तो वह कर्म कभी हट नहीं पायेंगे । और हटाने का पुरुषार्थ भी क्यों करेंगे ? ज्ञानी ! आत्मा में कर्म को रखा ही मानो, उसे रखा ही स्वीकारो । आत्मा में कर्म का बन्ध ही स्वीकारो, पर आत्मा को कर्म से सर्वथा बंधी मत स्वीकारो। यदि बंधी ही होगी, तो आत्मा कभी निर्बन्ध नहीं हो सकेगी । बन्ध विभाव है, बन्ध स्वभाव नहीं है । बन्ध को खोला जा सकता है । बन्ध को हटाया जा सकता है। मेरे पुरुषार्थ का विषय है, कर्म का विषय नहीं है। विपाक-विचय का ध्यान करना, क्योंकि कर्म का उदय है । लेकिन अपाय-विचय भी तो है । विपाक के साथ अपाय विचय धर्म्य ध्यान भी है । हे ज्ञानी ! दस प्रकार का धर्म्य ध्यान है। चार प्रकार का तो सभी को मालूम है। दस प्रकार के धर्म ध्यान में अपाय विचय नाम का भी धर्म्य-ध्यान है। चार के नाम तो पता है । "कार्तिकेयानुपेक्षा' ग्रन्थ में दस प्रकार का धर्म्य ध्यान का वर्णन है । यदि कर्म का बन्ध आत्मा में त्रैकालिक स्वीकार कर लिया जायेगा । तो कर्मबन्ध आत्मा का धर्म हो जायेगा, तो आत्मा कभी निर्बन्ध नहीं होगी। विभाव धर्म तो है, विभाव भाव तो है, लेकिन स्वभाव नहीं है । और विभाव पर संतुष्ट होने के लिए नहीं बैठे हैं, स्वभाव पर दृष्टि डालने के लिए बैठे हैं। अभाव तो बहुत दूर है, पहले दृष्टि ही डाल लो । अभाव करना तो अच्छी बात है, उसके लिए पुरुषार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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