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समय देशना - हिन्दी
२६१ नहीं था, निज के भाव कर्मों के राग ने ही पर के द्रव्य कर्मों को लिप्त किया है, और निज के भाव कर्म के साथ, नोकर्म न होता, तब भी तू बच सकता था, सुनो ही नहीं, गुनो भी।
क्या कहते हो इसके बाल कितने सुन्दर हैं, और वही एक बाल साधु की अंजली में आ जाये, तो अन्तराय कर देते हैं। हे ज्ञानी ! इस मल को देखकर क्यों अपना मन मलिन कर रहा है। आयुकर्म के निषेक को कहाँ नष्ट कर रहे हो, सफेद बाल को काला करने में लगा है। पर यह भूल रहा है, इनको तो हम काला कर लेंगे, पर आयु कर्म को क्या करोगे । जो आपको शुभ अंग दिख रहा है वह अशुभ कराने वाला है।
जिस पर राग करते थे उस राग ने ही वैराग्य को लौटा दिया, जितना शुभ-अशुभ कराता है, उतना अशुभ तो अशुभ भी नहीं कराता। अशुभ के काल में जीव कम से कम, पंच परमेष्ठी की आराधना के भाव तो करता है।
कम से कम भगवान का नाम ही ले लेता था, पर सुख के काल में भूल जाता है। शुभ ने अशुभ करा दिया। जितने जीव सातवें आदि नरकों में जा रहे है। ये शुभ के सहयोग से जा रहे हैं। शुभ के सहयोग में तीव्र अशुभ करते हैं। इतना वैभव मिला किसे, इतनी ताकत किसे मिली, अठारह हजार रानियाँ थी, रावण की।
मन्दोदरी ने रावण से कहा था, आपने शील की बाढ़ हटा दी, आपके घर अट्ठारह हजार रानियाँ थी, फिर परनारी क्यों हर कर लाये हो। ऐसा समझाया था। पर क्या करूँ, जिसकी पर के नो कर्म पर दृष्टि टिकी है। वह शुभकर्म करेगा कैसे?
परकर्म पर राग, धिक्कार हो, मोह कितना खोटा है, कि दूसरे के कर्म पर भी राग करता है। जबकि हर व्यक्ति कहता है कर्म छूट जाये, पर छूटे कैसे कर्म पर राग करता है।
अज्ञानी की भाषा बताऊँ - तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरणों में खड़ा है। जो एक सौ अड़तालीस (१४८) कर्म की प्रकृतियों से शून्य हो चुके है, अशरीरी सिद्ध बन गये है, उनसे क्या कह रहा है, हे नाथ 'सुख सम्पत्ति बहु होई' सुख बढ़े सम्पत्ति बढ़े, यश बढ़े, मान बढ़े, सत्कार बढ़े, धन्य-धान्य बढ़े। धिक्कार हो भगवान के सामने माँगा भी तो कर्म ही माँगा । खुश होकर माँग रहा है। भक्तों की भीड़ मन्दिर में कम, भिखारी ज्यादा हो गये है, भक्त माँगता नहीं है, स्वयमेव मिलता है, पुण्य का फल जायेगा कहाँ वह मिलेगा ही मिलेगा।
ठीक है, द्रव्य मिथ्यात्व को नहीं पूज्य रहे हो, पर आगम से हमसे मिलोगे, तो यही कहूँगा, तू कर्मातीत के यहाँ कर्म माँगने गया है यश कब फैलेगा, यश कीर्ति कर्म के द्वारा । इतना वही सोच पायेगा, जिसका मन साधु बन गया है आज आपको दिगम्बर साधु का वस्त्र उतारने का मतलब समझ में आया, परद्रव्य का संयोग विकारी बनाता है। लालसा बढ़ाता है। अत: परव्य से निवृत्त हो जाओ।
ओजस्तेजो-विद्या वीर्य यशो वृद्धि विजय-विभव-सनाथाः ।
महाकुला-महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥३६|| र.क.बा.|| जो सम्यक से पवित्र होता है, वह ओजस होता है, कुलवंत होता है मानव का तिलक होता है। चक्रवर्ती जैसे पद को प्राप्त करता है । वृष चक्र का स्वामी, धर्म चक्र का स्वामी, तीर्थंकर जैसे पद को प्राप्त करता है शुद्ध सम्यकदृष्टि । सम्यक्त्व का व्याख्यान समझना हो तो रत्नकरण्ड श्रावकाचार पढ़ो।
आत्मस्वभाव परभाव-भिन्नमापूर्णमाद्यन्त-विमुक्तमेकम् ।
विलीन-सङ्कल्प-विकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥१०॥ अ.अ.का. ॥ हे ज्ञानियो ! आपका स्वरूप क्या है, अभी तक आप एक चरण सुनते रहे, और एक चरण में हिलोरें
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