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समय देशना हिन्दी जानता हूँ, आप देते लेते नहीं हो, फिर भी हमारी भक्ति की भाषा है । अब जो आपको समय मिला है, ये भोगने के लिए नहीं मिला, साधना के लिए मिला है। यह वृद्ध अवस्था सुहावना समय है, इसमें विषय भी नहीं सताते । कामना को और छोड़ दो । यदि विपाकविचय धर्म्यध्यान जगत का प्रत्येक प्राणी करे, तो विश्वास रखना कोई किसी की ओर उँगली नहीं उठा सकता, जैनत्व का भान नहीं है उसे, जो विपाकविचय धर्मध्यान नहीं करता । क्यों ? विपाकविचय धर्मध्यानी कर्मोदय पर विचार करता है, और मिथ्यादृष्टि पर को लाँछन देता है ? अहो मुझे किसी जीव ने संताप दिया, तो मुझे क्या करना चाहिए ? संताप का बदला संताप से नहीं देना, संताप का बदला है समता में रहना। और क्या कहना, अहो, देखो मेरा कैसा अशुभ कर्म का उदय है, मेरे विभाव के कारण, पर का भाव, विभाव में जा रहा है। मैं संसार में न होता, तो मेरे द्रव्य गुण पर्याय को देख करके, ये अरहंत सिद्ध- अरहंत सिद्ध कहता, तो कर्मो की निर्जरा करता, पर मैं विभाव में हूँ, मेरे विभाव के कारण ये परभाव में जा रहा है। ये इसका दोष क्या है, मेरा ही दोष है, मैं सिद्ध हो गया होता, तो मैं इसके परिणामों के कलुषित होने का कारण न बनता, ये संताप मुझे दे रहा है। ये तो निमित्त मात्र है, विपाक तो मेरा ही है ।
ये सब समझ में जब आता है, जब मस्तक ठण्डा होता है और गर्म मस्तिष्क होता है तो एक बात भी जीव को समझ में नहीं आती, फिर तो आपको सीता को विराजमान करना पड़ेगा, जिसको वनवास दे दिया हो और उस सती ने नहीं कहा कि मेरे स्वामी ने मुझे वनवास दे दिया, उसने यही कहा कि यह तो मेरे कर्म का उदय है। मेरे स्वामी से कह देना, जैसे मुझे छोड़ा है, ऐसे वीतराग धर्म को न छोड़ देना। जो प्रवचन की भाषा है, वह घर की व्यवहार भाषा बन जाये तो ज्ञानी आनंद ही आनंद है ।
ज्ञानी ! तुझे दोष नहीं है, पर, दोष तेरा ही है, क्यों? सबसे बड़ा दोष तेरा ये है, कि तू संसारी क्यों है ? तू संसारी है, इसका मतलब यही है, कि तू दोषी है, वर्तमान की पर्याय में दोष दिख नहीं रहा आपको, लेकिन भूत का दोष नहीं होता, तो वर्तमान में यह संयोग क्यों होता ? अगर ये माता है, ऐसा सोचने लग जायें, तो अलग-अलग चूल्हे न रखे जायें। ध्रुव सत्य है, यह सम्यग्दृष्टि जीव अभिनव कर्मो का संवर करता है, और पूर्व कर्मो की निर्जरा कर रहा है। वह मोक्षमार्गी है, इसलिए ध्यान दो, किंचित धैर्य रख लिया जाये, सब कार्य सधते है, धैर्य चला जाये, तो सब काम बिगड़ते है । एक अन्तर्मुहूर्त अपने आपको संभाल लिया जाये, तो कभी किसी का काला मुख नहीं होता ।
हे ज्ञानी ! अड़तालीस मिनट तक व्यक्ति अपने को संभाल ले तो कभी किसी को काले कर्म लग ही नहीं सकते । कषाय का उदयकाल एक मुहूर्त है। बस उस मुहूर्त पर ही नियंत्रण करना है । जो विपाक विचय का चिन्तन कर लेता है, फिर उसके हृदय में समयसार गूँजता है। कर्म भी मेरे नहीं, तो पर निमित्त कैसे ? मेरे कर्म मेरे नहीं, तो फिर तेरे कर्म मेरे कैसे ? पर सारा जगत पर के कर्मों में राग कर रहा है, और निज के कर्म बुला रहा है। यानि किसी युवक को कन्या दिखी, उस पर राग कर बैठा, रागी ये कहेगा, प्रेम कर बैठा, पर जिनवाणी बोलेगी, पर के कर्म पर राग किया है, पर का शरीर नाम कर्म, पर का वर्ण नामकर्म, परका गति नामकर्म, पर का सुभग नाम कर्म, किस पर राग हो रहा है लगाते जाइये ? ये जिनवाणी पढ़े हैं आप सब, उस विषय को विस्तार करना । पर का वेद कर्म, पर का नोकर्म । आत्मा में राग होता तो अशरीर भगवान को देखता, किसको देखके राग बढ़ा, पर के कर्मों को देखकर तू सुकर्म खो बैठा, और कुकर्म कर बैठा, और कर्म को बुला बैठा, पर कर्म के पीछे, सुहावनी पर्याय को खोखला कर डाला। इनमें राग था, उनमें राग था, कुछ
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