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________________ समय देशना - हिन्दी २५७ भगवान हैं । कर्त्तापन का भूत जो है, वह प्रभु का नाम नहीं हटायेगा । कर्त्तापन का भूत प्रभु की वाणी हटायेगी । पोग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो । चेदणकम्माणादा, सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥८॥ द्रव्य संग्रह | हे ज्ञानी ! उपचरित असदभूत व्यवहारनय से 'आपने चावल बनाया है, कहते हो । व्यवहार नय से कर्त्ता है। ये उपचार कथन है। हे जीव ! इस भ्रम को निकाल दो, कि तू पौदगलिक कर्मों का कर्त्ता है । द्रव्य त्रैकालिक होता है । तू किस दिन से पुद्गल का कर्त्ता है? ये कारण में कार्य का उपचार है, कर्त्ता - कर्म का नहीं । आत्मा कर्म का कर्त्ता न कभी हुई, न होगी। आत्मा कर्म बंध का कर्त्ता है। क्योंकि कार्माण वर्गणायें तो त्रैकालिक शाश्वत हैं, और तू कर्म बन्ध का भी कर्ता कैसे है ? तू भावकर्मों का कर्त्ता है, भावकर्मो से द्रव्य कर्म आते हैं, और वे कर्म परस्पर में बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। तू भाव कर्म का कर्ता है, तू द्रव्यकर्म का भी कर्त्ता नहीं है । निश्चय से तू चेतनभावों का कर्त्ता हैं, और शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध भावों का कर्त्ता है । पुरुषार्थ सिद्धि उपाय में चार कारिकायें ऐसी है जो समयसार के कर्मकर्त्ता अधिकार से युक्त है। चावल आपने पकाये, कि चावल आग से पके। आपके हुये बिना आग से पके नहीं, आग के हुए बिना आप में पके नहीं, आपके हुए बिना आग जली नहीं, इसलिए कारण कार्य अपेक्षा आपने भी बनाये, आग ने भी पकाये । आप लडो मत । व्यवहाराभासी स्वयं स्वयं चिल्लाते है । निश्चयाभासी चावल-चावल चिल्लाते है । उभयाभासी दो को लेकर चिल्लाते है । स्याद्वादी कहता है स्याद अस्ति, स्यादनास्ति । इसलिए स्याद्वाद को लेकर ही जिनवाणी का कथन करे । जब तक गुरु की मानिये, जब तक सूत्र न आये । सम्माइट्ठी जीवो उवइदुं पव यणं तु सद्दहदि । सद्दहदि असावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ।२७| गो. जी. ॥ सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥२८॥ गो. जी. का. ॥ यदि आपके गुरु ने कहा है, और विपरीत श्रद्धान कर भी लिया, तब तक सम्यक्त्व है । पर किसी ने कहा, कि इस जिनवाणी में ऐसा लिखा है, तो उनका वचन स्खलन हो सकता है, या आपके सुनने में गलती हो सकती है। जिनवाणी में ऐसा लिखा है, उसे स्वीकार लीजिए। तब भी न माने, और कहे, हमारे गुरु ने जो कहा है वही मानूँगा, तो उसी क्षण से मिथ्यादृष्टि । अपने का राग सत्य को स्वीकारने नहीं देता, आपको सत्य लगता है, पर स्वीकारते नहीं है। इसलिए निक्षेप भूतार्थ भी है, अभूतार्थ भी है । प्रमाण, नय, निक्षेप में इन सबको ज्ञान करने के उपरान्त भी जो उद्योतमान निज शुद्धात्म द्रव्य है, वही भूतार्थ है । उदयति न नयश्री रस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् । किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वङ्कषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥९॥ अ.अ.क.॥ ज्ञानियो ! इस कलश में आचार्य भगवन अमृतचन्द्र स्वामी परम अद्वैतभाव की सिद्धि कर रहे है। नौवें कलश में बहुत बड़ा दार्शनिक पक्ष है । द्वैतभाव, अद्वैतभाव, हम स्यादवादी हैं, द्वैत एकान्त को नहीं मानते है, अद्वैत एकान्त को नहीं मानते है, हम द्वैताद्वैत को मानते है । अद्वैत की सिद्धि करना ही तो द्वैत है। तु व भाव ये दो हो गये, शब्द व अद्वैत ये दो हो गये, फिर अद्वैत भाव कैसा ? ये द्वैत है । परन्तु परभाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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