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________________ समय देशना - हिन्दी २५८ परभाव में मिलता है, परभाव निजभाव होता नहीं, निजभाव परभाव होता नहीं, निज-निज ही रहता है। अद्वैत है। 'खलु ब्रह्मोसि' ऐसा द्वैत नहीं हूँ,मैं । मैं ईश्वर अंश नहीं हूँ, मैं ईश्वर शक्ति स्वरूप हूँ, मैं ब्रह्म अंश नहीं हूँ, मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ, ब्रह्म अंश हो जाऊँगा, तो खण्डित हो जाऊँगा, आत्मा खण्डित नहीं है, आत्मा अखण्ड ध्रौव्य है । मैं किसी ब्रह्मा का खण्ड नहीं, टुकड़ा नहीं हूँ, अखण्ड स्वरूप हूँ। मैं कैसा हूँ - मलरहिओ णाणमओ, णिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो। तारिसओ देहत्थो, परमो बंभो मुणेयव्वो ॥२६|| तत्त्वसार ।। मल से रहित ज्ञानमई जो अशरीरी सिद्ध परमेश्वर सिद्धालय में विराजा है, वैसा ही परम ब्रह्म इस देह में विराजा है। मैं विभुक्त शक्ति सम्पन्न हूँ। मैं किसी का अंश नहीं हूँ। अब किसी से लड़ने मत जाना । मैं विभुक्त शक्ति सम्पन्न हूँ, प्रभुत्वशक्ति सम्पन्न हूँ। पाषाण में भी जो आत्मा है । वह ब्रह्मशक्ति सम्पन्न है। पाषाणेणु यथा हेमं, दुग्धमध्ये यथा धृतम् । तिलमध्ये यथा तैलं, देहमध्ये यथा शिवः ॥२३।। परमानंद स्तोत्र।। जैसे कि तिल मध्ये तेल, दूध मध्ये घृत, काष्ठ मध्ये अग्नि शक्ति रूप से विराजती है, ऐसे ही आत्मा शरीर में तिष्ठती है, इसमें कोई शंका नहीं है परमानंद स्तोत्र से बोल रहा हूँ । वस्तु का स्वरूप स्वतंत्र है, 'होता स्वयं जगत परिणाम' कण-कण स्वतंत्र है, कर्म भाव से रागभाव, रागभाव से कर्म भाव, है, दोनों हट जाये तो आत्मा स्वतंत्र है। स्निग्ध और रुक्ष के निमित्त से बंध होता है, फिर भी कण-कण स्वतंत्र है। रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०।। समयसार।। राग से बंध होता है ऐसा जिनेन्द्र का उपदेश है, तब भी जिनेन्द्र कहते है कण-कण स्वतंत्र है। जैन सिद्धान्त में कुछ मत सीखो, कारण कार्य भाव समझ लो बस, कर्माधीन अवस्था, वह भी कार्याधीन है। कार्य न करते, तो कार्य कैसे बनते। शादी न करते तो नाती-पोते कैसे आते। वस्तु व्यवस्था है। षट्गुण हानि वृद्धि है, वह स्वतंत्र है। शुद्धभाव स्वतंत्रता का बोध कराता है। रत्नत्रय की प्राप्ति स्वतंत्रता के ज्ञान से होगी, मोक्ष की प्राप्ति स्वतंत्रता के फल से होगी, अर्थ समझ लो, जहाँ पर नय उदय को ही प्राप्त नहीं है और प्रमाण अस्त हो गया और निक्षेप चक्र तो दिखाई ही नहीं देता, विलीन हो गया कहो ? फिर मैं क्या कहूँ, जब उद्योतमान आत्मा निजात्मा में लीन होता है, उसमें उदय श्री उदय को प्राप्त नहीं होती, प्रमाण अस्त हो जाता है, वहाँ शुद्धात्मा एक अद्वैत रूप में होता है। यह अद्वैत है, परम दशा है, यह आनंद है । सप्तम गुण स्थान से ऊपर-ऊपर । इसके लिए चतुर्थ गुणस्थान से अभ्यास करो, सप्तम गुणस्थान से शुद्ध अनुभूति है, चतुर्थगुण स्थान में भावना है, जब भावना ही नहीं भायेगा, तो शुद्धात्मानुभूति तक कहाँ पहुँच पायेगा। इसलिए भावना भाना। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ qqq आचार्य भगवन कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार ग्रन्थ में अभूतपूर्व सूत्र प्रदान किये, व्यवहार को प्रधान क्यों नहीं रखते है। ध्यान दो, जिस विषय को सभी लोग जानते हैं, उस पर ही व्याख्यान करें, तो आगे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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