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________________ समय देशना - हिन्दी २५६ द्रव्यनिक्षेप है। वर्तमान में तत्पर्याय से युक्त जो भाव है, वह वर्तमान भावनिक्षेप है । यह चारों ही निक्षेप स्वचतुष्टय के लक्षण से विलक्षण यानी विपरीत जब हम वेदन करते हैं, तो ये चारों ही निक्षेप भूतार्थ हैं । क्योंकि परद्रव्य का व्यवहार चलाने के लिए, जानने के लिए इसकी आवश्यकता है, इसलिए भूतार्थ है । परन्तु जो विलक्षण आत्मा अपने स्वभाव में है, परभाव के लक्षण से विलक्षण है। इस अपेक्षा से एक जीव निज चैतन्य-स्वभाव का अनुभवन करता है। उस समय ये चारों ही निक्षेप अभूतार्थ हैं। इस कलम से लिख रहा हूँ, णमो अरहंताणं, यह कलम भूतार्थ है । क्योंकि इससे महामंत्र लिख रहा हूँ। लेकिन जब मैं णमो अरहंताणं का जाप करूँगा, उस समय कलम अभूतार्थ है, क्योंकि मैं जाप में लीन हूँ । लिखने का विकल्प छोड़ दीजिए। जब पर्यायदृष्टि से वस्तु को हम जानना चाहते हैं, पदार्थों का ज्ञान करना चाहते हैं, उस काल चार निक्षेप भूतार्थ हैं। जब हम निज चैतन्य स्वरूप में लवलीन होते हैं, तो चारों अभूतार्थ हैं। जो जानेगी, वो आत्मा ही जानेगी। पर को जानेगी, तो आत्मा ही जानेगी। पर को परभूत होकर जानती है, और निज को, तन्मयभूत होकर जानती है। जब मैं अपने ज्ञान से इस कलम को जानूँगा, तो परभूत होकर जानूँगा, और जब मैं अपने निज ज्ञान से स्वयं को जानूँगा, तो तन्मयभूत होकर जानूँगा। जब इन चार निक्षेपों से हम आत्म-तत्त्व को जानेंगे, तो परभूत होकर जानेंगे, और जब आप निज को जानोगे, तो निक्षेप से रहित होकर जानोगे । क्यों ? द्रव्यनिक्षेप मेरे में नहीं है। भावनिक्षेप मेरे में है क्या ? भावनिक्षेप कह रहा है कि जो राज्य कर रहा है उसे राजा कहना, जो मुनि बना है उसे मुनि कहना, तो तीर्थंकर है उसे तीर्थंकर कहना और जो समयसारभूत परिणत हो रहा है, उसे समयसार कहना । जब-तक कहना है, तब-तक निक्षेप है । कहना नहीं, निज में होना, तो कोई निक्षेप नहीं हैं। जब तक कहना, तब-तक नय है। जब तक कहना, तब तक प्रमाण है, निक्षेप है । जब कहना ही बन्द हो जायेगा, होना ही होना बचेगा, तो न नय है, न निक्षेप है, न प्रमाण है। जो सोदू सो चैव । जो हूँ सो हूँ । य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यं । विकल्पजालच्युत-शांत चित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ॥ ६९॥ अ.अ.क. ।। जहाँ पर नय पक्षपात का विलीनीकरण हो जाता है, वहाँ स्वरूप में गुप्त होता है, वहाँ न नय की आवश्यकता है, न प्रमाण की आवश्यकता है। ये सब व्यवहार के लिए, समझने के लिए नय व प्रमाण चाहिए। भोजन बनाने के लिए नमक, मिर्च सबकुछ चाहिए; लेकिन जब भोजन का स्वाद लेता है, उस समय कुछ नहीं होता है, स्वाद ही होता है। बनाते समय सब द्रव्य चाहिए, पर कण्ठ में स्वाद लेते हो, उस समय अवक्तव्य एकभूत होता है। जब तक चाहिए है, तब तक है नहीं । जब है, तब चाहिए नहीं। बस उस घड़ी को याद करना चाहिए जब शब्द विलीन हो जाये। बस, यही परमसमयसार है। सुनते जाओ, जानते जाओ। चावल पकाने के लिए समय देना पड़ता है, जबकि सबसे जल्दी पकने वाली वस्तु है, फिर भी उसमें समय लगता है। चावल को अग्नि पकाती है । पकाने की तेरे पास कोई ताकत नहीं है। इतना पकड़ में आ जाये, तो सबकुछ सीख गया। ये भ्रम के भूत को निकाल दो आज से, कि तू चावल बनाती है, चावल बना दिये । चावल बनने में तेरी आत्मा का कौन-सा अंश लग गया ? मात्र तू चावल बनाने के योग की कर्त्ता है, चावल पकाने की भी नहीं है । माँ ! तूने अपने योग से चूल्हे पर भगोनी रखी, नीचे अग्नि रखी, और तूने क्या किया? निमित्त ही ये हैं । निमित्त जुटाने की ही कर्त्ता हो । कार्य तो स्वभाव से ही होता है। ये भ्रम निकल जाये, तो हम सभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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